________________
प्रस्तावना
५५. ऋषिभाषित-इसके रचयिता कौन हैं, यह ज्ञात नहीं होता। इसका एक संस्करण मूल रूप में श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित (सन् १९२७) हुआ है। उसमें 'श्रीमद्भिः प्रत्येकबुद्धर्भाषितानि श्रीऋषिभाषितसूत्राणि' ऐसा निर्देश किया गया है । यह एक धर्मकथानुयोग का ग्रन्थ है । वह प्रायः श्लोक, आर्या छन्द और गद्यसूत्रों में रचा गया है। इसमें ये ४५ अध्ययन हैं-१ नारद २ वज्जियपुत्त ३ दविल ४ अंगरिसि ५ पुप्फसाल ६ वक्कलचीरी ७ कुम्मापुत्त ८ (ते)
६ महाकासव १० तेतलिपुत्त ११ मंखलिपुत्त १२ जन्नवक्कीय १३ भयालि १४ बाहुक १५ मधुरायणिज्ज १६ सोरियायण १७ विदु १८ वरिसव १६ पायरियायण २० उक्कल २१ गाहावइज्ज २२ दग(माली) गद्दभीय २३ रामपुत्तिय २४ हरिगिरि २५ अंबड २६ मायंगिज्ज २७ वारत्तय २८ अदृइज्ज २६ बद्धमाण ३० वाउ ३१ पासिज्ज ३२ पिंग ३३ अरुणिज्ज ३४ इसिगिरि ३५ प्रहाल इज्ज ३६ तारापविज्ज ३७ सिरिगिरिज्ज ३८ साइपुत्तिज्ज ३६ संजइज्ज ४० दीवायणिज्ज ४१ इंदनागिज्ज ४२ सोमिज्ज ४३ जम ४४ वरुण और ४५ वेसमण ।
ऋषिभाषितों की समाप्ति के पश्चात् ऋषिभाषितों की संग्रहणी में उपर्युक्त ४५ प्रत्येकबुद्ध ऋषियों के नाम निर्दिष्ट किए गये हैं, जिनके नाम पर वे अध्ययन प्रसिद्ध हुए हैं। इनमें से अरिष्टनेमि के तीर्थ में २०, पाव जिनेन्द्र के तीर्थ में १५ और शेष महावीर के तीर्थ में हुए हैं । अन्तिम ऋषिभाषितअर्थाधिकार संग्रहणी-में उक्त अध्ययनों के ४५ अर्थाधिकारों के नामों का निर्देश किया गया है। तदनुसार ही जो उक्त ऋषियों के द्वारा उपदेश दिया गया है वह प्रकृत अध्ययनों में निबद्ध है।
- इस पर प्रा. भद्रबाहु द्वारा नियुक्ति रची गई है, पर वह उपलब्ध नहीं है। यह ऋषभदेव केशरीमल जी श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग प्रदत्तादानविरमण और अहिंसामहाव्रत आदि शब्दों में हुआ है।
५६. पाक्षिकसूत्र-इसके भी रचयिता कौन हैं, यह ज्ञात नहीं है । प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के अनुयायी आत्महितैषी जन सामायिक आदि छह आवश्यकों को नियमित किया करते हैं। उन आवश्यकों में प्रतिक्रमण भी एक है । वह देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक के भेद से पांच प्रकार का है । प्रस्तुत ग्रन्थ में पाक्षिक प्रतिक्रमण को प्रमुखता दी गई है। यहां प्रथमतः तीर्थंकर, तीर्थ, अतीर्थसिद्धि, तीर्थसिद्ध, सिद्ध, जिन, ऋषि, महर्षि और ज्ञान इनकी ग्रन्थकार द्वारा वन्दना की गई है। इस प्रकार वन्दना करके अपने को आराधना के अभिमुख बतलाते हुए ग्रन्थकार ने यह भावना व्यक्त की है कि अरिहंत, सिद्ध, साधु, श्रुत, धर्म, क्षान्ति (क्षमा), गुप्ति, मुक्ति, प्रार्जव और मार्दव ये सब मेरे लिए मंगल हों-कल्याणकर हों।
पश्चात् यह निर्देश किया गया है कि लोक में साधु जन परमर्षियों के द्वारा उपदिष्ट जिस महाव्रतों की उच्चारणा को किया करते हैं उसे करने के लिये मैं भी उपस्थित हा है। यह सूचना करते हए छठे रात्रिभोजनविरमण के साथ उक्त महावतोच्चारणा पांच प्रकार की कही गई है। तत्पश्चात् क्रम से प्राणातिपातविरमण आदि छहों महाव्रतों का उच्चारण किया गया है। जैसे-प्राणातिपात से विरत होना, यह अहिंसा महाव्रत है। इस अहिंसा महाव्रत में मैं सूक्ष्म, बादर, बस व स्थावर समस्त प्राणातिपात का मन, वचन व काय से तथा कृत, कारित व अनुमति से प्रत्याख्यान करता हूं। मैं अतीत सब प्राणातिपात की निन्दा करता हूं, वर्तमान का निवारण करता हूं, और अनागत का प्रत्याख्यान करता हूं इत्यादि।
इसी प्रकार से आगे शेष महाव्रतों की भी उच्चारणा की गई है। तत्पश्चात् भगवान महावीर की स्तुतिपूर्वक सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान; इन छह आवश्यकों का निर्देश करते हुए उत्कालिक और कालिक श्रुत का कीर्तन किया गया है। इसके ऊपर यशोदेव सूरि (विक्रम की १२वीं शताब्दी) द्वारा टीका लिखी गई है। इस टीका के साथ वह देवचन्द्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org