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जैन - लक्षणावली
करके प्रकृत में श्रुतज्ञान का उद्देश बतलाया है । श्रागे प्रश्नोत्तरपूर्वक अंगप्रविष्ट आदि का निर्देश करते हुए उत्कालिक श्रुत में आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त का उद्देश बतलाया है । इस प्रकार प्रथमतः यहाँ श्रावश्यक आदि के विषय में निक्षेप आदि की योजना की गई है। इसी प्रसंग में वहाँ श्रानुपूर्वी का विस्तार से विवेचन किया गया है । आगे यथाप्रसंग प्रौदयिकादि भाव, सात स्वर, नौ रस और द्रव्यक्षेत्रादि प्रमाण रूप अनेक विषयों की चर्चा की गई है। इसके ऊपर जिनदास गणि महत्तर (वि. सं. ६५० से ७५० ) द्वारा चूर्णि रची गई है। ये भाष्यकार जिनभद्र गणि (वि. सं. ६००-६६० ) के बाद और हरिभद्रसूरि (७५७-८२७ ) के पूर्व में हुए हैं। इस चूर्णि के अतिरिक्त उस पर एक टीका हरिभद्र सूरि द्वारा और दूसरी मलधारगच्छीय हेमचन्द्र सूरि द्वारा विरचित है। हेमचन्द्र सूरि के दीक्षागुरु मलधारी अभयदेव सूरि और शिष्य श्रीचन्द सूरि थे । इनके गृहस्थाश्रम का नाम प्रद्युम्न था । ये राज्यमन्त्री रहे हैं । इनका समय विक्रम सं. १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है । इसका उपयोग इन शब्दों में
हुआ है
मूल -- प्रचित्तद्रव्योपक्रम, श्रद्भुतरस, अनानुपूर्वी, अनेकद्रव्यस्कन्ध, अवमान, आगमद्रव्यानुपूर्वी, श्रागमद्रव्यावश्यक, आगमभावाध्ययन, ग्रागमभावावश्यक, आत्माङ्गुल, प्रादानपद और उद्धारपल्योपम आदि ।
चूर्णि - श्रद्धापल्योपम, अनुगम, उदयनिष्पन्न, उदयभाव, उपमित, ऊर्ध्वरेणु और प्रौदयिकभाव श्रादि ।
ह. टोका - अद्भुतरस, श्रद्धापल्योपम, अधर्मद्रव्य, अनुगम, अन्त, श्रवमान, ईश्वर, उद्धारपल्योपम, ऋजुसूत्र और प्रौदयिकभाव आदि ।
म. हे. टीका - चितद्रव्योपक्रम, अद्भुतरस, अनेकद्रव्यस्कन्ध और ग्रागमभावावश्यक आदि ।
४६. प्रशमरति प्रकररण- इसे प्राचार्य उमास्वाति ( विक्रम की ३री शताब्दी) विरचित माना जाता है। इसमें पीठबन्ध, कषाय, रागादि, आठ कर्म, पंचेन्द्रिय विषय, आठ मद, आचार, भावना, धर्म, धर्मकथा, नव तत्त्व, उपयोग, भाव, छह द्रव्य, चारित्र, शीलांग, ध्यान, क्षपकश्रेणि, समुद्घात, योगनिरोध, मोक्षगमन और अन्तफल ये २२ अधिकार हैं । समस्त श्लोकसंख्या ३१३ है ।
यहां ग्रन्थकार ने सर्वप्रथम चौबीस तीर्थकरों का जयकार करते हुए जिन, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं को नमस्कार किया है और तदनन्तर प्रशमरति में राग द्वेषके प्रभावस्वरूप वैराग्यविषयक अनुराग में स्थिरता के लिये जिनागम से कुछ कहने की प्रतिज्ञा की है । पश्चात् सर्वज्ञ के शासनरूप पुर में प्रवेश को कष्टप्रद बतलाते हुए भी बहुत से श्रुत-सागर के पारंगतों की प्रशमजनक शास्त्रपद्धतियों की सहायता से उस सर्वज्ञशासन में अपने प्रवेश की सम्भावना व्यक्त की है और श्रुतभक्ति से प्राप्त बुद्धि के बल से प्रस्तुत ग्रन्थ के रचने का अभिप्राय प्रगट किया है । श्रागे का विषय विवेचन उक्त अधिकारों के नाम अनुसार ही क्रम से किया गया है ।
इसके ऊपर आचार्य हरिभद्र (विक्रम सं. १९६५) द्वारा टीका रची गई है। इस टीका और एक अज्ञातकर्ता के श्रवचूरि के साथ यह परमश्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग श्रधिगम और श्रनित्यानुप्रेक्षा आदि शब्दों में हुआ है ।
५०. विशेषावश्यक भाष्य - यह प्राचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण द्वारा श्रावश्यक सूत्र के प्रथम अध्ययन रूप सामायिक मात्र के ऊपर रचा गया है, सामायिक अध्ययन पर निर्मित नियुक्तियों की ही उसमें विशेष व्याख्या की गई है। आचार्य जिनभद्र बहुश्रुत विद्वान थे । श्रागम ग्रन्थों का उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था । इसीलिए इस भाष्य में आगमों के अन्तर्गत प्रायः सभी विषयों का उन्होंने निरूपण किया है । आवश्यकतानुसार उन्होंने दार्शनिक पद्धति को भी अपनाया है । यथाप्रसंग विभिन्न मतान्तरों की भी चर्चा की गई है । डा. मोहनलाल जी मेहता उनके समय पर विचार करते हुए उन्हें वि. सं. १. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास भा. ३, पृ. ३२.
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