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उत्तराध्ययन में 'उत्तर' शब्द के अर्थ नियुक्तिकार ने नाम-स्थापना श्रादि के भेद से अनेक प्रकार बतलाये हैं । उनमें यहाँ क्रमोत्तर की विवक्षा की गई है, जिसका अभिप्राय यह है कि ये अध्ययन चूंकि आचारांग के उत्तर (आगे) पढ़े गये अतएव इन्हें उत्तर अध्ययन जानना चाहिए' । वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने यहां कुछ विशेषता प्रगट करते हुए यह निर्देश किया है कि यह उत्तर का क्रम शय्यम्भव - दशवेकालिक के कर्ता-तक ही समझना चाहिये । इसके पश्चात् वे—उक्त अध्ययनों में से कुछ - दशवेकालिक के बाद पढ़े जाते हैं। आगे चलकर नियुक्तिकार ने उक्त अध्ययनों को श्रंगप्रभवदृष्टिवाद अंग से उत्पन्न (जैसे द्वितीय परीषद्दाध्ययन), जिन भाषित - महावीर प्रणीत (जैसे द्रुमपुष्पिका नाम का दसवां अध्ययन ), प्रत्येकबुद्धों - कपिलादिकों से उत्पन्न ( जैसे कापिलीय नाम का आठवां अध्ययन ), तथा संवाद से - केशिकुमार और गौतम गणधर के प्रश्नोत्तर से उत्पन्न ( जैसे केशि- गौतमीय नाम का तेईसवां अध्ययन ) बतलाया है' ।
इसमें मुनि के प्राचार का विवेचन किया गया है साथ ही अनेक उदाहरणों द्वारा उपदेशात्मक पद्धति से वस्तुस्वरूप का भी परिज्ञान कराया गया है । इसमें ये छत्तीस अध्ययन हैं - १ विनयाध्ययन, २ परीषहाध्ययन, ३ चतुरङ्गीय, ४ असंस्कृत, ५ प्रकाममरणीय, ६ क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय, ७ श्ररभ्यीय, ८ कापिलीय नमिप्रव्रज्या, १० द्रुमपत्रक, ११ बहुश्रुतपूजा, १२ हरिकेशीय, १३ चित्रसम्भूतीय, १४ इषुकारीय, १५ सभिक्षु, १६ ब्रह्मचर्य समाधि १७ पापश्रमणीय, १८ संयतीय (संजय), १६ मृगापुत्रीय, २० महानिर्ग्रन्थीय, २१ समुद्रपालीय, २२ रथनेमिीय, २३ केशि गौतमीय, २४ प्रवचनमातृ, २५ यज्ञीय, २६ सामाचारी, २७ खलुङ्कीय, २८ मोक्षमार्गीय, ३१ चरणविधि, ३२ प्रमाद, ३३ कर्मप्रकृति, ३४ लेश्या, विभक्ति । इसके ऊपर बृहद्गच्छीय नेमिचन्द्राचार्य (वि. सं.
२६ सम्यक्त्वपराक्रम, ३० तपोमार्गगति, ३५ अनगारमार्गगति और ३६ जीवाजीव१९२९) विरचित सुखबोधा नाम की टीका
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। इस टीका के साथ वह पुष्पचन्द्र क्षेमचन्द्र वलाद ( अहमदाबाद ) के द्वारा प्रकाशित कराया गया है । इसके अतिरिक्त प्राचार्य भद्रबाहु द्वितीय (वि. की छठी श.) विरचित नियुक्ति तथा वादिवेताल शान्तिसूरि (वि. की ११वीं शती - मृत्यु सं. १०६६) विरचित शिष्यहिता नाम की टीका सहित प्रथम चार अध्ययन रूप एक संस्करण सेठ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड बम्बई से प्रकाशित हुआ है । इसकी जिनदास गणिमहत्तर (विक्रम की ७वीं शताब्दी) विरचित चूर्णि श्री ऋषभदेव केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था रतलाम से प्रकाशित हुई है । इसका उपयोग निम्न शब्दों में हुआ हैमूल - श्रचेलपरीषहजय, अधर्मद्रव्य, अनास्रव, अनुभाव, श्राक्रोशपरीषहजय, श्राज्ञारुचि श्रौर उपदेशरुचि श्रादि ।
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प्रस्तावना
नि. - अचित्तद्रव्योपक्रम, अनभिप्रेत, अनादिकरण, अनुलोम, श्रात्मसंयोग और प्रशंसा श्रादि । चू. - अनुगम, अनुभाव, श्रवधिमरण और श्रात्यन्तिकमरण आदि ।
टी. - अनादिकरण, प्राक्रोशपरीषहजय श्रीर श्रागमद्रव्योत्तर श्रादि ।
४०. श्रावश्यकसूत्र - इसमें प्रतिदिन नियम से की जानेवाली दैनिक क्रियाओं का निरूपण किया गया है। ऐसी क्रियाएं छह हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग श्रीर प्रत्याख्यान | इनका प्ररूपक होने से वह इन्हीं नामों वाले छह अध्ययनों में विभक्त
इस पर प्राचार्य भद्रबाहु द्वितीय (विक्रम की छठी शताब्दी) द्वारा विरचित नियुक्ति, श्राचार्य जिनभद्र गणी (विक्रम की ७वीं शताब्दी) द्वारा विरचित भाष्य, तथा एक टीका हरिभद्र सूरि (वि. की ८वीं शताब्दी) द्वारा विरचित और दूसरी प्राचार्य मलयगिरि ( विक्रम की १२ - १३वीं शताब्दी) द्वारा १. कमउत्तरेण पगयं श्रायारस्सेव उवरिमाई तु । तम्हा उ उत्तरा खलु ग्रज्झयणा हुति णायव्वा ॥ उत्तरा. नि. ३.
२. विशेषश्चायम् । यथा - शय्यम्भवं यावदेष क्रमः तदाऽऽरतस्तु दशवैकालिकोत्तरकालं पठ्यन्ते ३. उत्तरा. नि. ४.
इति । पृ. ५.
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