Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है, वह तो स्पष्ट रूप से एक आत्मवादी दर्शन है। उसमें जो पंचास्तिकाय एवं षड्द्रव्यों की चर्चा है, उसमें जीवास्तिकाय या जीवद्रव्य को ही प्रधान माना गया है। आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य की अवधारणा में आत्मा की क्या स्थिति है?
१.२ जैनदर्शन में पंचास्तिकाय एवं
षड्द्रव्यों की अवधारणा जैनदर्शन में जगत् के मूलभूत घटक के रूप में दो अवधारणाएँ उपलब्ध होती हैं - १. पंचास्तिकाय और २. षड्द्रव्य ।
प्राचीन जैनआगमों में भगवतीसूत्र, ऋषिभाषित आदि में लोक को पंचास्तिकाय रूप कहा है। जबकि परवर्ती ग्रन्थों में लोक को षड्द्रव्यात्मक कहा गया है। सामान्य दृष्टि से विचार करने पर पंचास्तिकाय और षड़द्रव्य की अवधारणा में विशेष अन्तर नहीं है। पंचास्तिकाय में काल को जोड़कर षड्द्रव्यों की अवधारणा बनी है। धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल ये पाँच द्रव्य अस्तिकाय रूप माने गये हैं। छठे कालद्रव्य को अनस्तिकाय कहा गया है। इस प्रकार पाँच अस्तिकायों में अनस्तिकाय के रूप में काल को जोड़कर षड्द्रव्यों की अवधारणा बनी। इस प्रकार षड़द्रव्यों में पाँच द्रव्यों को अस्तिकाय रूप और काल को अनस्तिकाय रूप माना गया है। अतः षद्रव्यों की अवधारणा के विवेचन के पूर्व अस्तिकाय की अवधारणा को समझ लेना आवश्यक है। अस्तिकाय शब्द दो शब्दों से बना है- अस्ति+काय। अस्ति का अर्थ अस्तित्व या सत्ता है और काय शब्द का अर्थ सामान्य रूप से शरीर किया जा सकता है। जैनदर्शन में काय शब्द एक पारिभाषिक शब्द है। प्रदेशप्रचयत्व का एक अर्थ प्रदेश समूह भी होता है। इस अपेक्षा से जिन द्रव्यों की संरचना प्रदेश समूह से हुई है वे अस्तिकाय हैं। सामान्य दृष्टि से वे सभी द्रव्य जिनका विस्तार क्षेत्र होता है अथवा जो विस्तारयुक्त हैं वे अस्तिकाय कहलाते हैं। इस अपेक्षा से
२ अंगसुत्ताणि भाग २ भगवई २/१०/१२४ । * ऋषिभाषित, अध्ययन ३१ पाव ।
-जैन विश्व भारती, लाडनू ।
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