Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
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पायेंगे। उसके परिणामस्वरूप पुण्य-पापादि का अभाव होने पर बन्ध तथा मोक्ष भी किसी प्रकार से सम्भव नहीं है और संयम, नियम, दान, सम्यग्दर्शनादि भी नहीं हो सकते। क्योंकि इसके लिए उसे अन्य अवस्था धारण करनी पड़ेगी अथवा पदार्थ को उत्पाद-व्यय वाला मानना होगा;२५३ जो कूटस्थ-नित्यवाद में सम्भव नहीं है। अतः आत्मा को अपरिणामी नहीं माना जा सकता है।५४
३. आत्मा कथंचित् मूर्त और कथंचित् अमूर्त है
जैनदर्शन में आत्मा को अमूर्त (अरूपी) द्रव्य कहा गया है। पंचास्तिकाय में भी आत्मा को अमूर्त द्रव्य माना गया है।२५५ द्रव्यसंग्रह में कहा गया है कि द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से आत्मा पुद्गल के गुण रूपादि से रहित अमूर्त है।५६ आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने कहा है कि आत्मा का मूल स्वभाव तो अमूर्त (अरूपी) है, किन्तु शरीरधारी संसारी आत्मा कर्म-शरीर से युक्त होने से मूर्त भी है। आत्मा एकान्त रूप से न तो अमूर्त है और न मूर्त। संसारापेक्षा से वह कथंचित् मूर्त भी है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा से आत्मा अमूर्त है।२५७ इसी प्रकार डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने भी बारह भावना के पद्य में कंथचित् अमूर्तता का चित्रण किया है :
"जिस देह में आतम रहे वह देह भी जब भिन्न है, तब क्या करे उनकी कथा जो क्षेत्र से भी भिन्न है। स्वोन्मुख चिवृतियाँ भी आत्मा से अन्य हैं,
चैतन्यमय ध्रुव आत्मा, गुणभेद से भी भिन्न है।"२५६ अर्थात् द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से शुद्ध-स्वभावी आत्मा अमूर्त है एवं पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से देहधारी कर्मों से युक्त आत्मा मूर्त है।
२५३ तत्त्वार्थसूत्र ५/३१ । २५४ सिद्धान्तसार संग्रह ४/२३-४ । २५५ पंचास्तिकाय ६७ । २५६ 'वण्णरस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे । __णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो ।। ७ ।।' २५७ (क) सर्वाथसिद्धि २/७;
(ख) तत्त्वार्थसार ५/१६ । २५८ 'बारह भावना : एक अनुशीलन' ।
-द्रव्यसंग्रह ।
-डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ।
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