Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
४. श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ
जैनधर्म में देशविरत श्रावक के लिए बारह व्रतों के साथ-साथ ग्यारह प्रतिमाओं का पालन भी आवश्यक माना गया है। प्रतिमा का तात्पर्य विशिष्ट नियम को ग्रहण करना है । प्रतिमाएँ वस्तुतः व्यक्ति के गृहस्थ जीवन से मुनि-जीवन की ओर आगे बढ़ने के लिए क्रमिक चरण हैं । इन प्रतिमाओं की चर्चा प्रायः श्रावक आचार सम्बन्धी सभी ग्रन्थों में मिलती है । ६६
१. दर्शन - प्रतिमा
दर्शन - प्रतिमा यह श्रावक की प्रथम प्रतिमा है । दर्शन - प्रतिमा का धारक श्रावक अध्यात्म में रूचि रखता हुआ स्वस्वरूप की प्रतीति करता है । इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक सर्वप्रथम क्रोध, मान, माया और लोभ इस कषायचतुष्क की तीव्रता कम करता है; क्योंकि जब तक अनन्तानुबन्धी कषाय समाप्त नहीं होते, तब तक दर्शनविशुद्धि नहीं हो सकती । दर्शन - प्रतिमा का साधक इन कषायों की तीव्रता को कम करके सम्यग्दर्शन की उपलब्धि करता है । उपासकदशांगसूत्र में भी शंका, आकाँक्षादि दोषों से रहित होकर सम्यग्दर्शन की साधना को ही दर्शन-प्रतिमा कहा गया है । ६७ इस प्रतिमा में साधक शुभ को शुभ और अशुभ को अशुभ के रूप मे सम्यक् प्रकार से जान लेता है । यह दर्शन या दृष्टि की विशुद्धि की स्थिति होती है 1
२. व्रत - प्रतिमा
जब साधक दृष्टि की विशुद्धि कर लेता है एवं सम्यक् आचरण के क्षेत्र में चारित्रविशुद्धि की ओर अग्रसर हो जाता है; तब वह अहिंसा, सत्य, आस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रहादि व्रतों को अपने गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं सहित आंशिक रूप से पालन करने का प्रयत्न करता है। इस प्रतिमा में श्रावक अपनी साधना के अन्तर्गत पाँच
१६६ (क) उत्तराध्ययनसूत्र की टीका ३१/११ ।
(ख) वही ३० / १७ ।
उपासक दशांगसूत्र पत्र १५ ।
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-गणिवर भावविजयजी ।
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