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५. उच्चार- प्रस्रवण- पारिष्ठापनिका समिति
आहार के साथ निहार का सम्बन्ध अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। मुनि को जीव-जन्तु रहित भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन कर मल-मूत्र, कफ, अपथ्याहार, अनुपयोगी उपधि, आँख, कान, नाक तथा केश का उत्सर्ग करना चाहिये । इसे उच्चार - प्रस्रवण समिति कहते हैं ।
तीन गुप्तियाँ
गुप्ति शब्द गोपन से बना है जिसका अर्थ खींच कर लेना होता है । इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच लेना गुप्ति है। ये गुप्तियाँ आत्मा की अशुभ से रक्षा करती हैं। वे निम्न हैं:
१. मनोगुप्ति
उत्तराध्ययनसूत्र की अपेक्षा से संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ मे प्रवृत्त होने से मन को रोकना मनोगुप्ति है । दूसरे शब्दों में अशुभ भावों से मन को निवृत्त करना या आत्मगुणों की सुरक्षा करना मनोगुप्ति है । यह मनोगुप्ति चार प्रकार की है ।
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
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२. वचनगुप्ति
असत्य, अहितकारी, कर्कश एवं हिंसाकारी भाषा से निवृत्त होना अथवा मौन धारण करना वचनगुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र की अपेक्षा से संरम्भ, समारम्भ, और आरम्भ में प्रवर्तमान वचन का प्रयोग नहीं करना वचनगुप्ति है । २०२ नियमसार में बताया गया है कि
२०२
१. सत्यमनोगुप्ति;
३. सत्यासत्यमनोगुप्ति; और
(क) उत्तराध्ययनसूत्र २४ /२१;
(ख) मूलाधार ६ / ११८७ ।
'सच्चा तहेव मोसा य, सच्चा मोसा तहेव य ।
२. असत्यमनोगुप्ति;
४. असत्य - अमृषामनोगुप्ति । २०१
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चउत्थी असच्चमोसा, मणगुत्ती चउविहा ।। २० ।। ' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २४ । उत्तराध्ययनसूत्र २४ / २४ एवं २५ ।
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