Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 442
________________ त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ गुणस्थान जघन्य अन्तरात्मा और उत्कृष्ट अन्तरात्मा के मध्य की स्थिति है । ६. प्रमत्तसंयत (सर्वविरति सम्यग्दृष्टि ) गुणस्थान इस देशविरति गुणस्थान में संयम की साधना तो होती है परन्तु वह आंशिक या एकदेशीय होती है। विकास या ऊर्ध्वगमन जिसका सहज स्वभाव है, वह अनन्तानन्त शक्तियों का पुंज आत्मा सम्बल लेकर संयम की ओर गति करना चाहता है, तब आत्मा का शुद्ध स्वभाव, अशुद्ध भाव को पराभूत कर देता है और वह सर्वविरति की ओर अग्रसर हो जाता है। इस गुणस्थान में संज्वलन कषायचतुष्क और हास्यादि नव नो- कषायों के सिवाय मोहनीयकर्म की शेष सभी प्रकृतियों के उदय का अभाव होता है । प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का क्षयोपशम या क्षय होने पर व्यक्ति प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान में आरोहरण करता है। गुणस्थानवाले साधक में संयम के साथ-साथ मन्द रागादि के रूप में प्रमाद रहता है। इसे निमित्त पाकर कषाय का उदय तो सम्भव है, किन्तु वह अल्पकालिक ही होता है । शुभ रागादिरूप प्रमाद से प्रमतसंयत गुणस्थानवर्ती साधक जुड़ा रहता है । षडूखण्डागम की धवला टीका - २ में आचार्य वीरसेन ने इसकी विस्तृत विवेचना की है कि यह गुणस्थान केवल मनुष्यों को ही होता है।८५ गुणस्थान में आत्मा की पूर्ण सजगता सम्भव नहीं होती है, फिर भी साधक प्रमाद के कारणों के उन्मूलनीकरण या उपशमन का प्रयत्न करता है । अन्त में प्रमाद पर विजय पाकर अप्रमत्त गुणस्थान श्रेणी को प्राप्त करता है । इस गुणस्थान वाला जीव मध्यम अन्तरात्मा का सूचक है। इस ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान अप्रमत्तसंयत नामक इस गुणस्थानवर्ती साधक अपनी शुद्ध अन्तःपरिणति का सम्बल लिए मोह के आक्रमणों को विफल करता ८४ विशेषावश्यकसूत्र गा. १२३४ । ८५ धवलाटीका १/१/१ सूत्र १४ पृ. १७६-१७७ । ३८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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