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ही आत्मा परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर सकती है।
एक अन्य अपेक्षा से त्रिविध आत्मा की अवधारणा हमारे आध्यात्मिक विकास और अविकास को ही सूचित करती है । बहिरात्मा व्यक्ति की अविकास की अवस्था है जबकि परमात्मा आत्मा के विकास की पूर्णता का सूचक हैं । जो बहिरात्मा अन्तर्मुख होकर परमात्मपद की प्राप्ति के लिए प्रयत्न और पुरुषार्थ करती है, वही अन्तरात्मा हो जाती है । अन्तरात्मा बहिरात्मा के परमात्मा बनने की प्रक्रिया का ही नाम है ।
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
जैनदर्शन में आध्यात्मिक विकास के विभिन्न चरणों को लेकर अनेक अवधारणाएँ उपलब्ध होती हैं । उसका षड्लेश्या का सिद्धान्त यह बताता है कि अशुद्ध मनोवृत्तियों से ऊपर उठता हुआ व्यक्ति किस प्रकार शुभ और शुद्ध निर्विकल्प दशा को प्राप्त होता है । लेश्याएँ क्या हैं और किस प्रकार वे हमारी मनोभूमियों के अशुभत्व, शुभत्व और शुद्धत्व को प्रस्तुत करती हैं, इसकी चर्चा हमने प्रथम अध्याय में की है । षड्लेश्या की अवधारणा के समान ही जैनदर्शन में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से कर्मविशुद्धि की दस गुणश्रेणियों और चौदह गुणस्थानों की चर्चा भी मिलती है
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जैनदर्शन में आत्मा के परमात्मस्वरूप को आवृत्त करने वाला मुख्य तत्त्व कर्म है। कर्मावरण के धीरे-धीरे क्षीण होने की अपेक्षा से जैनदर्शन में दस गुण श्रेणियों की चर्चा है । ये दस गुण श्रेणियाँ निम्न हैं :
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(१) सम्यग्दृष्टि; (४) अनन्तवियोजक; (७) उपशान्त; (१०) जिन ।
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(२) देशविरत; (५) दर्शनमोहक्षपक; (८) क्षपक;
(३) सर्वविरत; (६) उपशमक; (६) क्षीणमोह;
इन दस अवस्थाओं में नौ अवस्थाएँ तो आत्मा के आध्यात्मिक विकास की सूचक हैं और दसवीं 'जिन' अवस्था परमात्मा की सूचक है। इन दस अवस्थाओं में बहिरात्मा का समावेश नहीं है; क्योंकि बहिरात्मा जब तक अन्तरात्मा नहीं बनती, तब तक उसकी आध्यात्मिक विकास यात्रा प्रारम्भ नहीं होती ।
जैनदर्शन में आध्यात्मिक विकास को सूचित करनेवाला एक
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