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उपसंहार
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अन्तरात्मा कहा जाता है। अन्तरात्मा मोक्ष मार्ग का पथिक है। अन्तरात्मा ही अपनी यात्रा के माध्यम से परमात्मपद को प्राप्त करता है। आत्मा को परमात्मा की दिशा में अग्रसर करने वाला आत्मा ही अन्तरात्मा है। जैनधर्म का सम्पूर्ण साधनापथ अन्तरात्मा को परमात्मा तक पहुँचने की विधि को ही सूचित करता है। इस चतुर्थ अध्याय में हमने विभिन्न जैनाचार्यों ने अन्तरात्मा के स्वरूप एवं लक्षणों का किस रूप में निरूपण किया है, इसकी विस्तृत चर्चा की है। हमारी दृष्टि में यहाँ उस सबको प्रस्तुत करना एक पिष्टप्रेषण ही होगा। इस समस्त चर्चा में जो बात मुख्य रूप से उभर कर आती है वह यह है कि अन्तरात्मा के अनेक स्तर हैं। गणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोह नामक गुणस्थान तक की सभी अवस्थाएँ अन्तरात्मा की ही सूचक हैं। इस प्रकार अन्तरात्मा के अनेक स्तर होते हैं। मुख्य रूप से अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतसम्यग्दृष्टि, सर्वविरत मुनि और चारित्रमोह के उपशम और क्षय के लिए प्रयत्नशील श्रेणी आरोहण करनेवाली सभी आत्माओं को अन्तरात्मा कह सकते हैं। किन्तु इस व्यापक विस्तार में कहीं न कहीं क्रम विभाजन आवश्यक होता है। इसलिए हमने प्रस्तुत चर्चा में सर्वजघन्य अन्तरात्मा से लेकर उत्कृष्टतम अन्तरात्मा तक के विभिन्न सोपानों की चर्चा की है। इसमें देशविरत श्रावक के १२ व्रतों एवं उनके अतिचारों तथा गृहस्थ जीवन से मुनि जीवन की ओर आगे बढ़नेवाली ११ उपासक प्रतिमाओं पर तथा मुनि जीवन की आचार व्यवस्था पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है। यद्यपि यह समस्त चर्चा विवरणात्मक ही है किन्तु इसकी मूल्यात्मकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। अन्तरात्मा के अन्तर्गत् देशविरत श्रावक की जो अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत की मर्यादाएँ हैं, वे आज के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। इस भोगवादी संस्कृति में त्राण पाने के लिए आज भी परिग्रह-परिमाणव्रत, उपभोगपरिभोग-परिमाणव्रत, अनर्थदण्ड-विरमणव्रत आदि की महत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इस अध्याय में हमने यह भी देखने का प्रयत्न किया है कि अविरतसम्यग्दृष्टि से देशविरत, देशविरत से सर्वविरत और सर्वविरत से आध्यात्मिक प्रगति के द्वारा क्षीणमोह तक की उच्चतम अवस्था को व्यक्ति किस प्रकार
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