Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
आत्मा की अवधारणा का विकास कैसे हुआ, इसे सूचित करता है।
त्रिविध आत्मा की अवधारणा में बहिरात्मा का स्वरूप क्या है? वे कौनसे लक्षण हैं जिनके आधार पर किसी आत्मा को बहिरात्मा कहा जाता है ? इसकी चर्चा तृतीय अध्याय में करने के साथ-साथ ही बहिरात्मा की विभिन्न अवस्थाएँ कौन-कौनसी हैं और बहिरात्मा के कितने प्रकार माने जा सकते हैं, इसका भी विवेचन प्रस्तुत किया गया है। अति संक्षेप में कहें तो जो आत्मा संसाराभिमुख है, विषय-वासनाओं की पूर्ति को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानता है; जिसकी दृष्टि भोगवादी और स्वार्थपरक है - उसे ही बहिरात्मा कहा जाता है। जैन दार्शनिकों ने मिथ्यादृष्टि आत्मा को बहिरात्मा कहा है और मिथ्यादष्टि उसे बताया है जिसमें आत्म-अनात्म के विवेक का विकास नहीं हुआ है। जो देव, गुरू और धर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ है और जिसने भेद विज्ञान के माध्यम से आत्म-अनात्म के भेद को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा है; वही आत्मा अपने उपरोक्त लक्षणों के कारण बहिरात्मा कही जाता है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के तृतीय अध्याय में हमने इस प्रश्न की समीक्षा भी की है कि क्या अविरत सम्यग्दृष्टि बहिरात्मा है ? यद्यपि सामान्यतः अविरत सम्यग्दृष्टि को बहिरात्मा या जघन्य अन्तरात्मा के रूप में स्वीकार किया गया है, किन्तु हमारी दृष्टि में अविरत सम्यग्दृष्टि को अपने दृष्टिकोण के आधार पर अन्तरात्मा भले ही कहा जाय, किन्तु अपने आचार पक्ष की दृष्टि से तो वह बहिरात्मा ही है। यद्यपि उसमें सम्यक् समझ का विकास हो चुका है, फिर भी जब तक सम्यक् समझ जीवन के व्यवहार में नहीं उतारी जाती, तब तक वह अन्तरात्मा के रूप में अध्यात्मपथ का राही नहीं बनता। वस्तुतः किसी आत्मा के बहिरात्मा होने का मुख्य आधार उसकी मनोवृत्ति या लेश्या तथा उनके पीछे रही हुई कषायों की सत्ता ही है। अतः इस अध्याय में लेश्याओं और कषायों की विस्तृत चर्चा के बाद यह देखने का प्रयास किया गया है कि बहिरात्मा के साथ उनका सहसम्बन्ध किस रूप में है।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में अन्तरात्मा के स्वरूप एवं लक्षणों की चर्चा की गई है। उसमें यह बताया गया है कि जो व्यक्ति संसार से विमुख होकर आत्माभिमुख होता है, वही
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