Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
अपने विकास के मार्ग को प्राप्त नहीं कर पाया है। अन्तरात्मा वह आत्मा है जिसने अपने विकास के मार्ग को न केवल जान लिया है, बल्कि उस पर अपनी यात्रा भी प्रारम्भ कर दी है। ___ इसके द्वितीय अध्याय में हमने यह देखने का प्रयास किया है कि जिस प्रकार जैनदर्शन में आध्यात्मिक विकास की अपेक्षा से त्रिविध आत्मा की अवधारणा प्रस्तुत की गई है, उसी प्रकार बौद्धदर्शन और हिन्दू धर्मदर्शन में आध्यात्मिक विकास को लेकर किस प्रकार की चर्चा उपलब्ध होती है। इस तुलनात्मक विवेचन में हमने यह पाया है कि न केवल जैनदर्शन में अपितु औपनिषदिक चिन्तन में भी त्रिविध आत्मा की अवधारणा के बीज समाहित हैं।
उपनिषदों में आत्मा की दो स्थितियों का उल्लेख हुआ है - बहिःप्रज्ञ और अन्तःप्रज्ञ। ये दो प्रकार की आत्माएँ जैनदर्शन के बहिरात्मा और अन्तरात्मा के समकक्ष ही हैं। उपनिषदों में भी विषयोन्मुख (भोगोन्मुख) आत्मा को ही बहिःप्रज्ञ कहा गया है। इसी प्रकार आत्मोन्मुखी को ही अन्तःप्रज्ञ कहा गया है। चाहे उपनिषदों में परमात्मदशा का स्पष्ट उल्लेख न हुआ हो किन्तु उपनिषदों के अनेक वाक्य इस तथ्य के सूचक हैं कि यह आत्मा ही परमात्मा है। उपनिषदों का उद्घोष : “अयं आत्मा ब्रह्मः” इस तथ्य को सूचित करता है कि उनके अनुसार भी बहिरात्मा अन्तर्मुख होकर परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त कर लेती है। उपनिषदों में आध्यात्मिक विकास की निद्रा, स्वप्न, जाग्रति और तुरीय अवस्था का भी उल्लेख प्राप्त होता है। एक अन्य अपेक्षा से उपनिषदों में पंचकोशों की चर्चा भी मिलती है। ये चर्चाएँ आध्यात्मिक विकास यात्रा की सूचक हैं। इस प्रकार औपनिषदिक काल से कहीं न कहीं त्रिविध आत्मा की अवधारणा के बीज रहे हुए हैं।
बौद्धदर्शन में भी दो प्रकार के व्यक्तियों के उल्लेख मिलते हैं। एक जो संसाराभिमुख हैं और दूसरे वे जो निर्वाणाभिमुख हैं। संसाराभिमुख व्यक्ति बहिरात्मा है और निर्वाणाभिमुख व्यक्ति अन्तरात्मा। जैन परम्परा में त्रिविध आत्मा की अवधारणा की चर्चा आगमयुग के पश्चात् लगभग पाँचवी शताब्दी से प्राप्त होती है। आगमकाल में भगवतीसूत्र में आठ प्रकार की आत्माओं का उल्लेख प्राप्त होता है। उसमें कषायात्मा बहिरात्मा है। ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा
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