________________
उपसंहार
४०६
अन्य सिद्धान्त गुणस्थान सिद्धान्त है। इसमें आध्यात्मिक विकास की अपेक्षा से निम्न चौदह अवस्थाओं का उल्लेख है :
(१) मिथ्यात्व गुणस्थान; (२) सास्वादन गुणस्थान; (३) सम्यक्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान; (४) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान; (५) देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान; (६) प्रमत्त संयत गुणस्थान; (७) अप्रमत्त संयत गुणस्थान; (८) अपूर्वकरण गुणस्थान; (E) अनिवृत्तिकरण-बादर सम्पराय गुणस्थान; (१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान; (११) उपशान्तमोह गुणस्थान; (१२) क्षीणमोह गुणस्थान; (१३) सयोगी केवली गुणस्थान और
(१४) अयोगी केवली गुणस्थान। इनमें प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में जीव को बहिरात्मा कहा गया है। सास्वादन गुणस्थान तथा सम्यक्-मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान भी वस्तुतः बहिरात्मा के ही रूप हैं। गुणस्थान सिद्धान्त में इनको आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था माना गया है। अतः चौदह गुणस्थानों में प्रथम तीन गुणस्थान बहिरात्मा के सूचक हैं। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की अवस्थाएँ अन्तरात्मा की सूचक हैं और सयोगीकेवली तथा अयोगीकेवली ये दो अवस्थाएँ परमात्मपद की सूचक हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि आध्यात्मिक विकास की अपेक्षा से त्रिविध आत्मा की अवधारणा संक्षेप में इन तथ्यों को सूचित करती है कि बहिरात्मा किस प्रकार परमात्मा तक की यात्रा करती है।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में हमने इसी दृष्टि को लक्ष्य में रखकर जीवात्मा के स्वरूप और उसकी विभिन्न अवस्थाओं की चर्चा करते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार बहिरात्मा अपने बन्धन को समाप्त करते हुए अपनी साधना से मुक्ति प्राप्त कर परमात्मपद को प्राप्त होती है। वस्तुतः विविध आत्मा की अवधारणा में बहिरात्मा वह चेतन तत्त्व है जो अभी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org