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उपसंहार
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तीर्थकर और अवतार की अवधारणा तथा तीर्थकर और बुद्ध की अवधारणा में क्या समानताएँ और विशेषताएँ हैं, उसका भी उल्लेख किया है। उसके पश्चात् सिद्ध परमात्मा के स्वरूप की और उपचार की अपेक्षा से सिद्धों के भेद की भी चर्चा की है। साथ ही उपचार की अपेक्षा से जो सिद्धों के भेद किए जाते हैं, उनमें श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं में क्या अन्तर है और क्यों अन्तर है, इसे भी रेखांकित किया है।।
वस्तुतः जैनदर्शन में परमात्मा के स्वरूप की चर्चा के प्रसंग में यह तथ्य सबसे महत्त्वपूर्ण है कि जैनदर्शन यह मानता है कि प्रत्येक आत्मा परमात्मपद को प्राप्त कर सकती है। आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति को स्वीकार करनेवाला जैनदर्शन व्यक्ति के विकास की अनन्त सम्भावनाओं को उद्घाटित करता है। वह व्यक्ति को सदैव उपासक या भक्त बनाकर नहीं रखता। वह भक्त के परमात्मा और उपासक के उपास्य बनने की क्षमता को स्वीकार करता है। साथ ही वह ईश्वरीय करूणा या कृपा को अस्वीकार करके यह कहता है कि व्यक्ति 'तू उठ! और अपने पुरुषार्थ के द्वारा अपने परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर!' जैनदर्शन का मुख्य लक्ष्य आत्मा को परमात्मा बनाने का ही है। वह कहता है कि सभी आत्माएँ बीज रूप में परमात्मा हैं और यदि वे पुरूषार्थ करें तो स्वयं परमात्मा बन सकती हैं। इसी प्रसंग में जैनदर्शन और विशेष रूप से श्वेताम्बर परम्परा यह भी उद्घोष करती है कि परमात्मा बनने के लिये जाति, लिंग आदि बाधक नहीं हैं। परमात्मपद को प्राप्त करने में स्त्री और पुरूष, जैन परम्परा का पालन करनेवाले एवं अन्य परम्परा का पालन करने वाले, सभी सक्षम हैं। शर्त यह है कि वे राग-द्वेष से ऊपर उठें। सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए स्त्री-पुरूष या जैन-अजैन की भेद रेखा श्वेताम्बर परम्परा स्वीकार नहीं करती है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के छठे अध्याय में हमने त्रिविध आत्मा की अवधारणा और आध्यात्मिक विकास की जैनदर्शन और अन्य अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया है और यह बताया है कि षड्लेश्याओं की अवधारणा कर्म विशुद्धि की दस अवस्थाओं की अवधारणा और चौदह गुणस्थानों की अवधारणा का पारस्परिक क्या सह-सम्बन्ध रहा हुआ है। वस्तुतः तीनों सिद्धांत
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