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त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ
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१४. अयोगीकेवली गुणस्थान
अयोगीकेवली गुणस्थान की प्राप्ति आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा है। यह साधना की अन्तिम मंजिल है। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती साधक मन, वचन और काया के योगों का निरोध करके शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है। शैलेशी और निर्विकल्प अवस्था को अयोगीकेवली गुणस्थान कहा जाता है। वे नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति यदि आयुकर्म से अधिक हो तो उसे बराबर करने हेतु प्रथम केवलीसमुद्घात करते हैं और उसके पश्चात् सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान द्वारा केवली परमात्मा की आत्मा सुमेरूपर्वत की तरह निष्प्रकम्प स्थिति की उपलब्धि करके शरीर त्यागकर स्वस्वरूप में अधिष्ठित हो जाती है - निरुपाधिक सिद्धि या मुक्ति को प्राप्त कर लेती है। यही परमविशुद्धि, पूर्णता, कृत-कृत्यता तथा अव्याबाध आनन्द की अविचल स्थिति है। ज्ञानसार में इस अयोगीकेवली गुणस्थान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि त्याग-परायण साधक को अन्ततः सभी योगों का त्याग करना होता है। मेघ-शून्य गगन में चमकते हुए चन्द्र की तरह ही इस गुणस्थानवर्ती आत्मा अपने सम्पूर्ण शुद्ध स्वरूप में प्रतीत होती है।०२ ___ इस अयोगीकेवली गुणस्थान में चारित्र-विकास और स्वरूप-स्थिरता की चरम स्थिति होती है। इस गुणस्थान का स्थितिकाल अत्यन्त अल्प होता है। जितना समय पांच हृस्व स्वरों अ, इ, उ, ऋ, ४ को मध्यमस्वर से उच्चारण करने में लगता है उतने ही समय तक इस गुणस्थान में आत्मा रहती है।०३ यह योग सन्यास है - यह सर्वांगीण पूर्णता है और चरम आदर्श की प्राप्ति है।
षट्खण्डागम की धवलाटीका में आचार्य वीरसेन ने अयोगीकेवली गुणस्थान का विवेचन इस प्रकार किया है कि जिस साधक के मन, वचन और कायारूप योग नहीं होता है; उसे
१०२ (क) ज्ञानसार, त्यागअष्टक श्लोक ७-८;
(ख) 'दर्शन और चिंतन' भाग २ पृ. २७५ उद्धृत । १०३ जीव अजीव, पृ. ७२ । Jain Education International
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-प. सुखलालजी ।
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