Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 448
________________ त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ ३६५ कारण इसे क्षीणमोह गुणस्थान कहते हैं। साधक की समस्त वासनाएँ और आकाँक्षाएँ समाप्त हो जाती हैं। वह राग, द्वेष और मोह से भी पूर्णतः मुक्त होता है। मोह आठों कर्मों की सेना का प्रधान सेनापति है। इस मोहरुपी प्रधान सेनापति के परास्त होने पर शेष कर्मरुपी सेना भागने लगती है। मोहकर्म के सर्वथा क्षीण होने पर अल्प समय में ही दर्शनावरण, ज्ञानावरण और अन्तराय - ये तीनों घातीकर्म भी क्षीण हो जाते हैं। क्षायिक मार्ग पर आरूढ़ जीवात्मा दसवें गुणस्थान के अन्तिम चरण में सूक्ष्म लोभांश का क्षय कर इस क्षीणमोह गुणस्थान में प्रविष्ट होती है। इस गुणस्थान में साधक स्फटिकमणि के निर्मल पात्र में रखे हुए निर्मल जल के सद्दश निर्मल होता है।६६ अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में इसका यही स्वरूप बताया है। साधक इसमें अन्तर्मुहूर्त जितने अल्प समय तक स्थिर रहता है। इस गुणस्थान के अन्तिम चरण में साधक के ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय - ये तीनों आवरण नष्ट होने लगते हैं। इसलिए इस गुणस्थान का पूरा नाम क्षीणकषायवीतरागछमस्थ भी है। इसमें साधक अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तशक्ति से आध्यात्मिक विकास की अग्रिम श्रेणी को उपलब्ध करता है। इस गुणस्थान की जघन्य एवं उत्कृष्ट समयावधि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। क्षपक श्रेणीवाले साधक ही इस गुणस्थान को उपलब्ध करते हैं और इस क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती आत्मा की स्थिति उत्कृष्ट अन्तरात्मा की स्थिति है। १३. सयोगीकेवली गुणस्थान इस गुणस्थान में साधक आध्यात्मिक विकास कर परम विशुद्धि को प्राप्त करता है। गुणस्थान की दृष्टि से यह सयोगीकेवली तेरहवां गुणस्थान है। इस गुणस्थान में आत्मा के मूल गुणों का घात करनेवाले चारों घातीकर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय • ६५ (क) समयसार गा. ३३ । (ख) द्रव्यसंग्रह टीका गा. १३ पृ. ३५ । ६६ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ६२ । ६७ तत्त्वार्थवार्तिक ६/१/२२ पृ. ५६० । षट्खण्डागम १/१/१ सू. २० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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