Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 449
________________ ३६६ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा और अन्तराय) का सर्वथा नाश हो जाता है,६६ लेकिन चार अघातीकर्म शेष रहते हैं। आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय - इन चार अघातीकर्मों के शेष रहने के कारण आत्मा देह से मुक्त नहीं होती तथा उसके सम्बन्ध का परित्याग भी नहीं करती है।०० सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवात्मा के बन्धन के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद कषाय और योग - इन पांच कारणों के योग को छोड़कर शेष चार कारण नष्ट हो जाते हैं, किन्तु आत्मा और देह का सम्बन्ध रहने से मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तिरूप योग बने रहते हैं। इनके कारण प्रकृति और प्रदेशबन्ध होता है, परन्तु कषाय का अभाव होने से स्थिति और अनुभागबन्ध नहीं होता। पहले क्षण में बन्धन और दूसरे क्षण में उदय एवं तीसरे क्षण में कर्म परमाणु निर्जरित होते हैं। इस अवस्था में कर्मों के बन्धन और विपाक की प्रक्रिया को औपचारिकता ही जानना चाहिए। इन योगों के अस्तित्व के कारण इसे सयोगीकेवली गुणस्थान कहा जाता है। मोक्षरुपी लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए आत्मा को इन प्रयोगों का निरोध करना होता है। सयोगीकेवली सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति शुक्लध्यान का आश्रय लेकर जब योग व्यापार को निरूद्ध कर देता है, तो अग्रिम श्रेणी अयोगीकेवली अवस्था की ओर अग्रसर हो जाता है। सयोगीकेवली गुणस्थान साधक और सिद्ध के बीच की अवस्था है। जैनदर्शन में इस अवस्था को अर्हत्, सर्वज्ञ या केवली अवस्था कहा जाता है। सयोगीकेवली गुणस्थान में जीव तीर्थंकर हो तो वे तीर्थ की स्थापना करते हैं। देशना देकर तीर्थ प्रवर्तन करते हैं। इस गुणस्थान में केवली भगवान जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से कुछ न्यून करोड़ पूर्व वर्ष तक रहते हैं। इस तेरहवें गुणस्थानवर्ती की आत्मा परमात्मा की द्योतक है। ६६ (क) 'तत्र भावमोक्ष, केवलज्ञानोपपत्तिः जीवन्मुक्तोर्हत्पदमित्येकार्थः ।' ___ -पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति टीका गा. १५० पृ. २१६ । (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) जीवप्रबोधिनी टीका, गा. ६३/६४ । १०० 'धातिकर्मक्षये लब्धवा, नवकेवल लब्ध्यः ।। येनासौ विश्वतत्त्वज्ञः, सयोगः केवली विभुः ।।' -संस्कृत पंचसंग्रह १/४२ । १०१ (क) प्रवचनसार १/४५; (ख) विस्तृत विवेचन के लिये द्रष्टव्य धवला १/१/२६ व पृ. १६१ एवं १६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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