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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
को वीतरागता होने पर भी वह छयस्थ होता है। दसवें गुणस्थानवर्ती साधक के सूक्ष्म लोभ का उपशम होने पर जीव इस गुणस्थान में आता है। इस गुणस्थान में मोहनीयकर्म को अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता है। इस कारण जीवात्मा के परिणामों में वीतरागता या निर्मलता आ जाती है, किन्तु वह स्थायी नहीं होती है। आत्मा अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् इस गुणस्थान से अवश्य पतित होती है। क्षीणमोह आदि अग्रिम गुणस्थान को वही आत्मा उपलब्ध कर सकती है, जो क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होती है। क्षपक श्रेणी के बिना मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती। इस गुणस्थानवाला जीव नियम से उपशम श्रेणी ही करता है। अतः वह जीव ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान से अवश्य गिरता है। इस गुणस्थान का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्महर्त परिमाण होता है। इस गुणस्थान का समय पूरा होने से पूर्व यदि व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त करता है, तो वह अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है। वहाँ वह चतुर्थ अविरत- सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करता है, क्योंकि देवों के पांचवे आदि गुणस्थान नहीं होते। उनके चौथा गुणस्थान होता है। जीव पतन के समय क्रम के अनुसार ही गुणस्थानों को प्राप्त करता है और उन गुणस्थानों के योग्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय और उदीरणा करना प्रारम्भ करता है। इस पतनकाल में वह सातवें और चौथे गुणस्थान में रूककर पुनः क्षायिक श्रेणी से यात्रा प्रारम्भ कर सकता है। यदि इन दोनों गुणस्थानों में नहीं रूक पाता है, तो वह सीधा प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है। इस गुणस्थानवर्ती आत्मा उत्तम अन्तरात्मा की परिचायक है।
१२. क्षीणमोह गुणस्थान
क्षीणमोह बारहवां गुणस्थान है। इस गुणस्थानवर्ती आत्मा की मोहकर्म की सभी २८ प्रकृतियाँ पूर्णतः क्षीण हो जाती हैं। इसी
६४ 'अथो यथा नीते क्रतके नाम्भोस्तु निर्मलम् ।
उपरिष्टा तथा शान्त मोहो ध्यानेन मोहने ।।'
-संस्कृत पंचसंग्रह १/४७ ।
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