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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
चारित्रमोहनीयकर्म का उपशमन करता है, तब उपशमक कहलाता है। साधक चारित्रमोहनीयकर्म का क्षपण (क्षय) करता है, तब क्षपक कहलाता है। आम्में पान की अपेक्षा नौवें गुणस्थान में आत्मविशुद्धि बहुत अधिक होती है। इस गुणस्थान में व्यक्ति संज्ज्वलन क्रोध, मान और माया का, हास्यपक और तानों वेदों का उपशम या क्षय करके दसवें सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में प्रवेश करता है। इस गुणस्थान की आत्मा उत्तम अन्तरात्मा के समकक्ष है।
१०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान
इस सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान का क्रम दसवां है। सम्पराय का अर्थ है लोभ ।८ इस गुणस्थान में संज्वलन लोभ कषाय के सूक्ष्म कर्मदलिकों का उदय रहता है। इस कारण इस गुणस्थान का नामकरण सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान किया गया है। आचार्य नेमिचन्द्र गोम्मटसार जीवकाण्ड में सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि जैसे कौसुंभी वस्त्र लाल रंग का होता है। उस वस्त्र को पानी से धो लेने पर उसकी लालिमा कम तो हो जाती है, किन्तु सूक्ष्म रूप में बनी रहती है। वैसे ही (उस धुले हुए कौसुंभी वस्त्र की लालिमा के समान) इस गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ परिणाम अवशिष्ट रहते हैं। वे सूक्ष्म लोभ का वेदन करते हैं या सूक्ष्मलोभ कषायकर्म के उदय से इस गुणस्थानवी जीव के अबुद्धिपूर्वक उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हुए लोभ परिणाम होते हैं।° अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क और संज्ज्वलन क्रोध, मान और माया से पन्द्रह कषायों और हास्यादि नौ नोकषायों के अनुदयपूर्वक दसवां गुणस्थान होता है। इस गुणस्थान में जीव कषायों का उपशमन करते हुए
८८ 'साम्प्राय कषायः'
-तत्त्वार्थवार्तिक ६/१/२१ पृ. ५६० । ५६ 'समसाम्प्राय सूक्ष्मसंल्वजन लोभः'
(क) गोम्मटसार टीका कर्मकाण्ड जीवप्रबोधिनी केशवर्णी गा. ३३६ । (ख) स. पंचसंग्रह १/४३/४४ ।
(ग) 'आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ और पूर्णता' पृ. ४५ । ९० 'ध्रुव को सुंभयवत्थं होदि जहा सुहुमरायसंजुत्तं ।
एवं सुहुम कसाओ सुहुमसरागोत्ति णादव्वो' ।।५।। -गोम्मटसार (जीवकाण्ड)।
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