Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 443
________________ ३६० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा रहता है। जैसे-जैसे जीवों में उज्ज्वलता बढ़ती है, वैसे-वैसे एक अभिनव शक्ति निष्पन्न होती है। वह प्रमाद को अपने पर हावी नहीं होने देता है। सजग आत्मा ही इस अवस्था को प्राप्त करती है। वह देह में रहते हुए भी देहातीत दशा को प्राप्त होकर स्वस्वभाव में लीन रहती है। यह आत्म सजगता की स्थिति है। स्वरूपाचरण में आनन्दानुभव की उर्मियां उठती रहती हैं। गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहा गया है कि क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्य आदि नोकषाय का उदय मन्द हो जाता है, तभी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायोपशमिकभाव और सम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षायिक एवं औपशमिक भाव की प्राप्ति होती है। इस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव और सम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षायिक एवं औपशमिक भाव की प्राप्ति होती है। इस गुणस्थान का समय अन्तर्मुहर्त है। देहभाव के आते ही वह छठे गणस्थान में चला जाता है। सामान्य साधक छठे-सातवें गुणस्थान में झूलता रहता है। इस अप्रमत्तता की स्थिति बढ़ने पर साधक श्रेणी प्रारम्भ. करता है और आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है। इस गुणस्थान वाला आत्मा उत्तम अन्तरात्मा के समकक्ष है। ८. अपूर्वकरण (निवृत्तिकरण बादर) गुणस्थान इस गुणस्थान का क्रम आठवां है। अपूर्वकरण गुणस्थान में साधक आध्यात्मिक विकास की अपूर्व भूमिका में प्रविष्ट होता है एवं इस गुणस्थानवी आत्माओं के परिणाम प्रति समय अपूर्व-अपूर्व ही होते हैं। इस गुणस्थान को अपूर्वकरण इसलिए कहते हैं कि इसमें इतनी आत्मशक्ति विकसित हो जाती है, जितनी पहले कभी नहीं हुई थी। इस अपूर्वकरण गुणस्थान में श्रेणी का आरोहण प्रारम्भ हो जाता है और आत्मा कर्मावरण से हल्की होती है। परिणामस्वरूप आत्मा अपूर्व आनन्दानुभूति में डूब जाती है, जिसका आनन्द वर्णनातीत होता है। इस गुणस्थान में साधक बाह्य विषय-विकारों से मुक्त होता है और उसमें एक अनूठी आत्मशक्ति ८६ (क) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ४५ । (ख) विशेषावश्यकसूत्र गा. १२४७-४८ । ८७ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विष्लेषण' । -डा. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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