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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
अनुसार व्यक्ति का व्यक्तित्व इन तीनों की पारस्परिक प्रभावशीलता के आधार पर ही निर्मित होता है। __ यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो इन तीनों का सम्बन्ध त्रिविध आत्मा के साथ देखा जा सकता है। जिसे फ्रायड अबोधात्मा या वासनात्मक अहम् कहता है, उसे ही जैनदर्शन में बहिरात्मा कहा गया है। जिसे फ्रायड ने बोधात्मा या चेतनात्मक सजग अहम् कहा है, उसे ही जैनदर्शन अन्तरात्मा कहता है। इसी प्रकार फ्रायड का आदर्शात्मक अहम् जैनदर्शन का परमात्मा है, क्योंकि जैनदर्शन में परमात्मा उसे ही कहा गया है जिसमें उच्च आदर्श साकार हो उठते हैं। इस तुलनात्मक चिन्तन को अधिक स्पष्ट करने के लिये सर्वप्रथम हम फ्रायड के चेतना के इन स्तरों के स्वरूप की चर्चा करेंगे। ज्ञातव्य है कि फ्रायड ने जिस अर्थ में इगो शब्द का प्रयोग किया है, उसे किसी रूप में बहिरात्मा कहा जा सकता है।
अबोधात्मा या वासनात्मक अहम् (ID)
फ्रायड के अनुसार अबोधात्मा या वासनात्मक अहम् वासनाओं और इच्छाओं का भण्डार है। यह माना गया है कि मनुष्य की सभी इच्छाओं और आकाँक्षाओं का जन्म इसी अबोधात्मा या वासनात्मक अहम् के आधार पर होता है। ___ फ्रायड के अनुसार अबोधात्मा या वासनात्मक अहम् सभी मनोजैविक वैज्ञानिक शक्तियों का मूल है। यह सुखेच्छा के द्वारा संचालित होता है। चेतना के इस स्तर पर समय, स्थान, उचित, अनुचित का कुछ भी बोध नहीं होता। वह अच्छे और बुरे के विवेक से रहित होता है। इस स्तर पर वासनाएँ ही प्रधान होती हैं। वे विवेक को अपने पास फटकने भी नहीं देती हैं। इस स्तर पर व्यक्ति जैविक आकाँक्षाओं और ऐन्द्रिक इच्छाओं के आधार पर ही व्यवहार करता है। यहाँ वह उचित और अनुचित का विचार नहीं करता है। इस स्तर पर संयम और आत्मानुशासन के तत्व भी पूर्णतः अनुपस्थित रहते हैं। व्यक्ति का व्यवहार मन और
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