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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
करना होता है वह अबोधात्मा और आदर्शात्मा के मध्य करना होता है। एक ओर अबोधात्मा (इड) से उत्पन्न वासनाएँ और आकांक्षाएँ अपनी मांग प्रस्तुत करती हैं, तो दूसरी ओर आदर्शात्मा उनके औचित्य और अनौचित्य अथवा करणीय या अकरणीय होने के आदर्शों को प्रस्तुत करती है। बोधात्मा का कार्य इन दोनों के मध्य समन्वय स्थापित करना होता है। जब बोधात्मा इनके बीच समन्वय स्थापित करने में सफल होती है, तो व्यक्ति का व्यक्तित्व सन्तुलित रहता है। किन्तु जब वह इनके बीच समन्वय स्थापित करने में असमर्थ होती है, तो वह वासनात्मक अहं की मांगों को अचेतन में ढकेल देती है और वासनात्मक अहम् की ये दमित इच्छाएँ अचेतन में बैठकर व्यक्तित्व के व्यवहार को विश्रृंखलित करती रहती हैं। परिणामस्वरूप व्यक्ति हताशा और तनावों का शिकार बन जाता है। दमित वासनाएँ उसके व्यक्तित्व को विखण्डित कर देती हैं।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि जैनदर्शन की अन्तरात्मा और फ्रायड की बोधात्मा में कुछ समरूपताएँ और कुछ विभिन्नताएँ हैं। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार बोधात्मा करणीय और अकरणीय का निर्धारक तत्व है। जैनदर्शन भी यह मानता है कि अन्तरात्मा हेय, ज्ञेय और उपादेय का विचार करती है। साथ ही, जिस प्रकार बोधात्मा को मनोव्यवहार का मुख्य प्रशासक माना गया है उसी प्रकार जैनदर्शन में अन्तरात्मा को भी मन और वासना का शासन करनेवाली बताया है। जिस प्रकार बोधात्मा वासनाओं और इच्छाओं पर संयम का अंकुश लगाती है, उसी प्रकार अन्तरात्मा भी अपनी वासनाओं
और इच्छाओं को संयमित करती है। फिर भी दोनों में अन्तर यह है कि फ्रायड का चेतनात्मक अहम् प्रतिकूल परिस्थितियों से समझौता करना सिखाता है और उसके समक्ष नैतिक या आध्यात्मिक मूल्य प्रमुख नहीं होते हैं। उदाहरण के रूप में किसी व्यक्ति में किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा उत्पन्न होती है, किन्तु उसे क्रय करने की उसकी आर्थिक क्षमता नहीं है। ऐसी स्थिति में
का बल भी यह मानाय और अकल आधुनिक मन में कुछ
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