Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
विकास के लिये प्रयत्नशील होता है। पूर्ववर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवाला साधक कर्तव्याकर्तव्य का विवेक रखने पर भी कर्तव्य पथ पर चल नहीं पाता है, किन्तु सत्य के प्रति केवल श्रद्धा से लक्ष्य धारित नहीं होते हैं; जब तक उसके अनुरूप व्यावहारिक जीवन में परिवर्तन नहीं होते। पांचवें देशविरत गुणस्थान में साधक आध्यात्मिक विकास की ओर अपना कदम आगे बढ़ाता है और प्रारम्भिक पुरुषार्थ करने के लिए तत्पर बनता है। वह चारित्रमोहनीय के बन्धन को शिथिल करने के लिए प्रयत्न करता है। जब तक चारित्रमोह शिथिल नहीं होता; जब तक आत्मस्थिरता नहीं होती; तब तक साधक सद्विश्वास के अनुरूप असत् से विरत होने के लिये पराक्रमशील नहीं होता है। आत्मस्वरूप में अधिष्ठित होने या सम्यक्चारित्र के क्षेत्र में यह पहला पदन्यास है, इसलिए इसे विरताविरत, संयमासंयम, देशसंयम, देशचारित्र, अणुव्रत, संयतासंयति, धर्माधर्मी देशविरत आदि नामों से अभिहित किया जाता है। इसमें अप्रत्याख्यानी कषाय का क्षयोपशम होकर साधक भोगोपभोग से आंशिक रूप में विरत हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय सर्वविरति में बाधक रहता है। इस गुणस्थानवाला सर्वज्ञ प्रणीत तत्त्वों पर श्रद्धा रखता हुआ त्रसादि जीवों की हिंसा से विरत होता है। वह निष्प्रयोजन जीवों की हिंसा नहीं करता है। वह त्रस जीवों की हिंसा नहीं करता है। इस गुणस्थानवी जीव त्रस जीवों के हिंसा के त्याग की अपेक्षा से विरत एवं स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग न होने की अपेक्षा से अविरत या विरताविरत कहलाता है।३ श्रावक के पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत - इस प्रकार कुल बारह व्रत हैं। इनका पालन करनेवाला देशविरत कहलाता है। इस गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्व कोटि परिमाण होता है। यह पांचवाँ गुणस्थान मनुष्य और तिर्यंच के होता है। पांचवें गुणस्थानवी जीव को मध्यम अन्तरात्मा कहा जाता है। यह
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-गोम्मटासर (जीवकाण्ड) ।
८२ 'पच्चक्खाणुदयादो, संजम भावो ण होदि ण वरिंतु ।
थोव वदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमओ ॥ ३० ॥' .८३ 'जो तसवहाओ विरदो अविरदो तह य थावर वहाओ।
एक्क समयंम्मि जीवो, विरदाविरदो जिणेक्कमई ।। ३१ ।।' Jain Education International
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-गोम्मटासर (जीवकाण्ड) ।
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