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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
होता है। वह अशुभ को अशुभ के रूप में मानता तो है, फिर भी अपनी अशुभ प्रवृत्तियों का त्याग नहीं कर पाता है। सत्य को समझते हुए भी अपने आध्यात्मिक बल की कमी के कारण वह आंशिक रूप से भी संयम (इन्द्रिय-नियन्त्रण) का पालन करने में असमर्थता का अनुभव करता है।
जैनदर्शन की अपेक्षा से दर्शनमोहनीय कर्म की शक्ति के दब जाने पर या उसका आवरण क्षीण होने पर जीवात्मा को यथार्थबोध तो होता है, किन्तु चारित्रमोहनीयकर्म का आवरण रहने से साधक का आचरण सम्यक् नहीं होता। इस गुणस्थानवाला जीव एक अपंग व्यक्ति के समान होता है, जो देखता तो है किन्तु चल नहीं पाता। अविरतसम्यग्दृष्टि साधक उचित मार्ग को जानते हुए भी उस पर आचरण नहीं कर पाता है। इस गुणस्थान वाला जीव हिंसा, झूठ, अब्रह्मचर्य आदि सावद्य व्यापारों से विरत नहीं होता है। इसलिये उसे अविरत सम्यग्दृष्टि कहा जा सकता है। पापजनक प्रवृत्तियों से पृथक् हो जाने को विरत कहते हैं। यदि कोई जीवात्मा सम्यग्दृष्टि होने के बाद व्रत, प्रत्याख्यान नहीं कर सकता है तो वह जीव अविरत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।६ इस अविरतसम्यग्दृष्टि आत्मा में भी कुछ अंश तक तो आत्म संयमात्मक वृत्तियों पर संयम होता है। क्योंकि इसमें अनन्तानुबन्धी (तीव्रतम) क्रोध, मान, माया और लोभ का अभाव रहता है। यह अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तीव्रतम आवेगों से रहित होता है। जब तक अनन्तानुबन्धी कषाय चौकड़ी का क्षय या उपशम नहीं होता है, तब तक उसे सम्यग्दर्शन की उपलब्धि नहीं हो सकती है। जैनदर्शन के अनुसार अविरत सम्यग्दृ ष्टि गुणस्थानवी जीवात्मा को सात कर्मप्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम निम्न प्रकार से होता है :
१. अनन्तानुबन्धी क्रोध; २. अनन्तानुबन्धी मान; ३. अनन्तानुबन्धी माया; ४. अनन्तानुबन्धी लोभ; ५. मिथ्यामोह; ६. मिश्रमोह; और ७. सम्यक्त्व मोह। साधक इन सात कर्मप्रकृतियों का सम्पूर्णतः जब क्षय करता है,
७५ संस्कृत पंचसंग्रह १/२३ । ७६ ‘णो इन्दियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि ।
जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ।। २६ ।।'
-गोम्मटसार (कर्मकाण्ड)।
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