Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 437
________________ ३८४ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा सास्वादन गुणस्थान है। इस गुणस्थानवी जीव बहिरात्मदशा के सूचक हैं। मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती सभी जीव बहिरात्मा ही होते है। इस गुणस्थानवाले जीवों में सम्यक्त्व की विराधना और अनन्तानुबन्धी का उदय रहता है। अतः ये भी बहिरात्मदशा के सूचक हैं। ३. मिश्र गुणस्थान यह सम्यक्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से तीसरा है। . आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड में बताया है कि जैसे दही और गुड़ को मिश्रित कर देने पर उन दोनों का पृथक्-पृथक् स्वाद नहीं लिया जा सकता और उसका स्वाद न तो मीठा होता है न खट्टा; वैसे ही इस गुणस्थान में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिश्रित परिणाम पाए जाते हैं। इस मिश्रित परिणाम का मूल कारण सम्यक् मिथ्यात्व नामक कर्मप्रकृति का उदय होता है।७२ इस गुणस्थानवी जीव अनिश्चय की अवस्था में रहता है। कभी वह सम्यक्त्व की ओर अभिमुख होता है तो कभी मिथ्यात्व की ओर, किन्तु किसी एक का त्याग कर दूसरे को ग्रहण नहीं करता। इस गुणस्थान वाले जीव सर्वज्ञ कथित मार्ग पर न तो पूर्णतः श्रद्धा करते हैं और न पूर्णतः अश्रद्धा।७३ नारिकेल द्वीप के लोग चावल आदि के विषय में विश्वास या अविश्वास कुछ भी नहीं करते हैं, क्योंकि उनके यहाँ केवल नारियल ही पैदा होते हैं। अतः चावलादि अदृष्ट एवं अज्ञात अन्न को देखकर वे उसके प्रति रुचि या अरुचि कुछ भी नहीं रखते हैं। वैसे ही मिश्र (सम्यक् मिथ्यादृ ष्टि) गुणस्थानवी जीव सर्वज्ञ प्रणीत तत्त्वों पर रुचि या अरुचि अथवा श्रद्धान या अश्रद्धान न करके मध्यस्थ भावों में रहते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व में जीवात्मा मिथ्यात्वमोहनीय के परमाणुओं का उपशम करके उन्हें तीन पुंजों में विभक्त करता है : शुद्ध, ७१ षट्खण्डागम १/१/१ सूत्र ११ ।। ७२ गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा. २१-२२ । (क) 'मिस्सुदये तच्चमियरेण सद्दहदि एक्कसमणे ।' (ख) 'दहिगुडमिव वामिस्सं, पहुभावं णेव कारिदुं सक्कं । एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छोत्ति णादब्बो ॥ २२ ॥' -लाटी संहिता, गा. १०७ । -गोम्मटसार (जीवकाण्ड)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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