Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ
पतनोन्मुख आत्मा जब इस गुणस्थान को प्राप्त होती है, ६५ तब वह अधिकतम छः आवलिका पर्यन्त एवं जघन्य से एक समय इसमें रह सकती है । तदनन्तर वह नियम से मिथ्यात्व गुणस्थान की ओर गमन करती है । जैसे वृक्ष से फल को टूटकर धरा पर गिरने में जितना समय लगता है, उतना ही समय सास्वादन गुणस्थान का होता है । जैसे खीर खाने के पश्चात् वमन होने पर खीर का कुछ स्वाद बना रहता है, ६६ वैसे ही एक बार यथार्थ बोध अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने के बाद मोहासक्ति के कारण जब आत्मा पुनः अयथार्थ या मिथ्यात्व को ग्रहण करती है, फिर भी उसे यथार्थता या सम्यक्त्व का आस्वाद बना रहता है । उस क्षणिक एवं आंशिक आस्वादन के कारण ही जीव की यह अवस्था सास्वादन गुणस्थान कही जाती है। अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक ६७ में बताया है कि सास्वादन गुणस्थान से गिरता हुआ जीव नियम से प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता है । षट्खण्डागम और गोम्मटसार जीवकाण्ड में सास्वादन गुणस्थान को सासन सम्यक्त्व भी कहा गया है । ६६ यहाँ सासन शब्द का अर्थ इस प्रकार है : स ( सहित ) + आसन ( सम्यक्त्व की विराधना ) सासन अर्थात् सम्यक्त्व की विराधना से युक्त। धवला में इसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ इसी रूप में उपलब्ध है 'आसनं सम्यक्त्वं विराधनं, सह आसदनेन इति सासादन' अर्थात् सम्यक्त्व की विराधना को आस्वादन कहा गया है और आस्वादन से युक्त ही सास्वादन गुणस्थान है। श्वेताम्बर परम्परा में इसकी व्युत्पत्ति भिन्न प्रकार से की जाती है । उनके अनुसार जो सम्यग्दर्शन के
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ज्ञातव्य है कि
आस्वादन से
युक्त है, वह
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६५ संस्कृत पंचसंग्रह १ /२० ।
૬૬ समयसार नाटक अ. १४ छंद २० ।
६७ तत्त्वार्थवार्तिक ६९१ / १३ पृ. ५८६ |
६८
षट्खण्डागम ५/१/७ सूत्र ३ । ६६ षटखण्डागम १/१/१० ।
७०
(ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), गा. १६ ।
(ग) 'आसनं क्षेपणं सम्यक्त्वं विराधनं तेन सह वर्तते यः ससासनः ।'
(क) धवला १/१/१ ।
(ख) तत्त्वार्थवार्तिक ६/१/१३ ।
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- गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), मन्दप्रबोधिनीटीका, गा. १६ ।
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