Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
आध्यात्मिक दृष्टि से यह आत्मा की बहिरात्मदशा है । मिथ्यादृष्टि जीव विवेकहीन होता है एवं उसमें सत्य-असत्य तथा धर्म-अधर्म के स्वरूप को पहचानने की शक्ति का अभाव होता है । ६२
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सामान्यतः मिथ्यादृष्टि जीव की अभिरुचि आत्मोन्मुख नहीं होती । किन्तु इसका यह भी अर्थ नहीं है कि उनमें आत्मा जाग्रत ही नहीं होती। कुछ मिथ्यादृष्टि जीव ऐसे होते हैं, जिनमें आत्माभिरुचि जागती है और वे इस मिथ्यात्व गुणस्थान के चरम समय में यथाप्रवृत्ति, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के द्वारा सम्यक्त्व को उपलब्ध कर लेते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवों में दो प्रकार के जीव होते हैं एक वे जिनमें आत्माभिरूचि या सम्यक्त्व उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं रही हुई है और जिन्हें अभव्यजीव कहा जाता है। किन्तु जो भव्य जीव होते हैं, वे इसी मिथ्यात्व गुणस्थान से पूर्वोक्त त्रिकरण को ग्रन्थिभेद करते हुए सम्यग्दृष्टि को प्राप्त करते हैं। सम्यग्दृष्टि प्राप्त करने के लिये जो प्रयत्न या पुरुषार्थ किया जाता है, वह इसी गुणस्थान में होता है और इसी अपेक्षा से इसे गुणस्थान के रूप में परिगणित किया जाता है । मिथ्यात्व गुणस्थान का काल अनादि अनन्त सिद्ध होता है 1
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२. सास्वादन गुणस्थान
इस गुणस्थान का क्रम अध्यात्म विकास की अपेक्षा से दूसरा है। यह गुणस्थान ऊपर के गुणस्थानों से नीचे गिरने पर ही होता है । सम्यग्दर्शनरूपी शिखर से पतित और मिथ्यात्वरुपी भूमि की ओर नीचे गिरनेवाले जीव औपशमिक सम्यग्दृष्टि होते हैं । ३ चारित्र मोहनीयकर्म की अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होने पर इस गुणस्थान की उपलब्धि होती है । ६४ इस गुणस्थान में कोई भी आत्मा प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से विकास करके नहीं आती है, अपितु सम्यग्दर्शन से पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान स्पर्श करने के पूर्व इस सास्वादन गुणस्थान को प्राप्त होती है।
६२ गुणस्थान क्रमारोहः रत्नशेखरसूरि, श्लोक ८ ।
६३ गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) गा. २० ।
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(क) षटखण्डागम १/१/१०;
(ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), गा. १६ ।
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