Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 440
________________ त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ ३८७ तब वह सम्यक्त्व क्षायिक कहलाता है और उस आत्मा का इस गुणस्थान से पुनः पतन नहीं होता। वह कालक्रम में अग्रिम श्रेणियों से विकास करता हुआ अन्त में परमात्मस्वरूप की उपलब्धि कर लेता है। जिस जीव का सम्यक्त्व क्षायिक होता है, वह सात या आठ भवों में निश्चय ही परमात्मपद को प्राप्त करता है। इस अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान की विशेषताएँ निम्न प्रकार से उपलब्ध हैं : १. अनन्तानुबन्धी लोभ कषाय का अभाव होने से अविरतसम्यग्दृष्टि की विषयों में अत्यन्त आसक्ति नहीं होती है। २. अनन्तानुबन्धी क्रोध का अभाव होने से निरपराध जीवों की हिंसा में उसकी रुचि नहीं होती है। ३. उत्तमगुणों का ग्रहणकर्ता होता है। ४. रत्नत्रयी और तत्वत्रयी में श्रद्धा रखता है। ५. धन, धान्य, स्त्री, पुत्र, परिवार आदि पदार्थों का अहंकार नहीं करता है। ६. अपने दोषों की निन्दा व गर्दा दोनों ही कर सकता है।८० ७. दुःखी जीवों को देखकर उसका हृदय करूणा से द्रवित हो जाता है।" सम्यक्त्व प्राप्ति के कारण ही इस गुणस्थानवी जीव अन्तरात्मा कहे जाते हैं। यद्यपि चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान पर्यन्त के सभी जीव अन्तरात्मा की कोटि में माने जाते हैं। फिर भी व्रत ग्रहण नहीं होने से यह चतुर्थ गुणस्थानवाला जीव जघन्य अन्तरात्मा ही कहा जाता है। ५. देशविरत गुणस्थान इस गुणस्थान का क्रम पांचवाँ है, लेकिन सदाचार की दृष्टि प्रथम स्तर ही है। इस गुणस्थान में साधक अपने आध्यात्मिक ७७ गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गा. २६ । ७८ वही। ७६ वही (जीवकाण्ड) गा. २७-२८ । ८० 'द्दङ्मोहस्योदयाभावात् प्रसिद्ध प्रशमोगुणः । ___ तत्राभिव्यांजकं बाह्यानिदनं चापि गर्हणम् ।।' -पंचाध्यायी (उत्तरार्थ) कारिका ४७२ । गुणस्थान क्रमारोह, श्लोक २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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