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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
उपलब्ध होता हैं। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार तीर्थंकरों के निम्न चार अतिशय होते हैं :१५६ १. ज्ञानातिशयः
२. वचनातिशय; ३. अपायापगमातिशय; और ४. पूजातिशय। १. ज्ञानातिशय : केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की प्राप्ति ही तीर्थंकर
परमात्मा का ज्ञानातिशय स्वीकारा गया है। वे तीर्थंकर परमात्मा सर्वज्ञ होने के कारण भूतकालिक, वर्तमानकालिक तथा भावी पर्यायों के ज्ञाता-द्दष्टा अर्थात् त्रिकालज्ञ होते हैं। तीर्थंकर परमात्मा अनन्तज्ञानयुक्त होते हैं। अतः यही उनका ज्ञानातिशय
कहलाता है। २. वचनातिशय : तीर्थंकर परमात्मा अबाधित और अखण्ड सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। यही उनका वचनातिशय माना
गया है। इस वचनातिशय के ३५ उपविभाग उपलब्ध होते हैं। ३. अपायापगमातिशय : वे तीर्थंकर परमात्मा समस्त मलों एवं दोषों
से रहित होते हैं। अतः यही उनका अपायापगमातिशय कहा गया है। तीर्थंकर परमात्मा में रागद्वेषादि १८ दोषों का अभाव
माना गया है। ४. पूजातिशय : तीर्थंकर परमात्मा सुर-नरेन्द्रों द्वारा पूजित होते हैं।
यही उनका पूजातिशय माना गया है। जैन-परम्परा तीर्थंकर
परमात्मा को देव-नरेन्द्रों द्वारा पूज्यनीय स्वीकार करती है। जैनाचार्यों ने तीर्थंकर परमात्मा के अतिशयों को प्रकान्तर से तीन भागों में विभाजित किया है। वे निम्न हैं : १.सहज अतिशय; २.कर्मक्षयज अतिशय; और ३.देवकृत अतिशय।
उपर्युक्त तीन अतिशयों के ३४ उत्तरभेद किये गए हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सहज अतिशय के चार, कर्मक्षय अतिशय के ग्यारह तथा देवकृत अतिशय के उन्नीस भेद स्वीकृत किये गए है। १. सहज अतिशय : १. सुवर्णी काया (सुन्दर रुप), सुगन्धित, निरोग, पसीना वं मल
रहित देह; २. कमल के सदृश सुगन्धित श्वासोच्छ्वास;
१५६ 'अनन्तविज्ञानमतीतदोषम बाध्यसिद्धांतममर्त्य पूज्यम् ।।' -अन्ययोगव्यवच्छेदिका १ (हेमचन्द्र) ।
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