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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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उपदेशक, धर्म का नेता, धर्म मार्ग का सारथी और धर्म चक्रवर्ती कहा गया है। इस प्रकार तीर्थंकर धर्मतीर्थ का प्रवर्तक और उसके संरक्षक तथा संवर्धक होते है। यहाँ ज्ञातव्य है कि हिन्दू परम्परा के अवतार के समान जैन धर्म में भी तीर्थंकर को भी धर्म का प्रवर्तक कहा गया है। किन्तु दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ अवतार धर्म के प्रवर्तन के साथ अपने भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिये दुष्टों का दमन भी करते हैं; जबकि तीर्थंकर स्वयं सत्य का साक्षात्कार करके धर्म मार्ग की स्थापना करते हैं। दुष्टों का दमन
और सज्जनों की रक्षा तीर्थंकर का दायित्व नहीं है। इस प्रकार तीर्थंकर और अवतार के कार्य में यह महत्वपूर्ण अन्तर है। दूसरा अन्तर यह है कि जहाँ तीर्थंकर आत्मसाधना के द्वारा अपना आध्यात्मिक विकास करते हुए तीर्थंकर पद को प्राप्त करते है; वहाँ अवतार परमात्मा का अवतरण है। अवतार में परमात्मा ही बार-बार लोकमंगल के लिए जन्म ग्रहण करते हैं, जबकि तीर्थंकर आत्मपूर्णता को प्राप्त कर अपने निर्वाण के पश्चात् सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। प्रत्येक अवतार की वही आत्मा है, जबकि प्रत्येक तीर्थंकर की भिन्न-भिन्न आत्मा है। इस प्रकार तीर्थंकर की अवधारणा अवतारवाद की अवधारणा से नितान्त भिन्न है। अवतार की अवधारणा ईश्वर के अवतरण की अवधारणा है, जबकि तीर्थंकर की अवधारणा उतरंग की अवधारणा है। उतारवाद में मानव अपने विकारी जीवन से ऊपर उठकर परमात्मतत्व को प्राप्त करता है, जबकि अवतार की अवधारणा में परमात्मा ही मनुष्य या अन्य किसी रूप में अवतरित होते है। अवतार में परमात्मा ऊपर से नीचे आते है जबकि तीर्थंकर नीचे से ऊपर की और जाकर परमात्मतत्व को प्राप्त करते हैं। तीर्थंकरत्व की प्राप्ति एक विकास की प्रक्रिया है, जबकि अवतार की अवधारणा अवतरण की प्रक्रिया है। इस प्रकार तीर्थंकर और अवतार का मूलभूत प्रयोजन धर्म की संस्था पर एक होते हुए भी दोनों के स्वरूप में अन्तर है।
५.४ अतिशय
जैनाचार्यों के अनुसार तीर्थंकरों के चार अतिशयों का उल्लेख
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