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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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करती हुई उस उँचाई तक पहुँचती है। इस प्रकार जैनदर्शन और बौद्धदर्शन दोनों ही अवतारवादी न होकर उतारवादी हैं। निर्वाण प्राप्त तीर्थकर अथवा बुद्ध पुनः इस संसार में जन्म नहीं लेते। भावी तीर्थकर कोई अन्य आत्मा या भावी बुद्ध अन्य चेतनधारा होती है। इस प्रकार तीर्थंकर और बुद्ध की अवधारणा में सामान्यरूप से तो समानता है, किन्तु दोनों में मूलभूत जो अन्तर है वह बौद्ध धर्म के अनात्मवाद की अवधारणा को लेकर है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि बौद्धदर्शन के अनात्मवाद का अर्थ 'आत्मा नहीं है ऐसा न होकर 'आत्मा नित्य नहीं हैं ऐसा है। बौद्धदर्शन के अनात्मवाद की दो ही स्थापनाएँ हैं। एक तो यह कि संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे अपना अर्थात् आत्मा कहा जा सके। दूसरी यह कि जहाँ जैनदर्शन चित्त तत्त्व अर्थात् आत्मा को परिणामी नित्य मानता है, वहाँ बौद्धदर्शन आत्मा को एक परिवर्तनशील चित्तधारा के रूप में ही स्वीकार करता है। इस प्रकार बौद्धदर्शन में बुद्ध भी एक चित्तधारा ही है।
जैनदर्शन मे अनुसार कोई भव्य आत्मा किसी जन्म में सम्यक्त्व रूपी बोधिबीज को प्राप्त करके अपनी आध्यात्मिक साधना करते हुए जब लोक-मंगल की भावना से आप्लावित होती है, तब वह तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन कर तीर्थंकर के रूप में जन्म लेती है एवं अन्त में मुक्ति को प्राप्त करके सिद्ध बन जाती है। उसका पुनः पुनर्जन्म नहीं होता है। बौद्ध धर्म के अनुसार भी कोई व्यक्ति या चित्तधारा बोधिबीज को प्राप्त होकर बोधि शब्द के रूप में विकास करते हुए विभिन्न जन्मों में पारमिताओं की साधना करते हुए बुद्धत्व को और अन्त में निर्वाण को प्राप्त होती है। किन्तु बौद्ध धर्म की भाषा में यह नहीं कहा जा सकता कि जिस चित्त (आत्मा) ने बोधिसत्व का उत्पाद किया था, उसी चित्त ने परिनिर्वाण को प्राप्त किया। बौद्धदर्शन के अनुसार यदि कहना हो तो हम केवल इतना ही कहेंगे कि जिस चित्त में बोधिसत्व का उत्पाद हुआ था उसी चित्त की सन्तति ने निर्वाण को प्राप्त किया; क्योंकि कोई भी चित्त नित्य नहीं है। जो परिणमन प्राप्त होते हैं, वे चित्त-सन्तति के होते हैं। इस प्रकार तीर्थकर या बुद्ध. की अवधारणा में बहुत कुछ समानता होते हुए भी आत्मा की नित्यता
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