Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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अष्टगुण माने गये है : १. अनन्तज्ञान : ज्ञानावरणीयकर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने से
केवलज्ञान उपलब्ध होता है, इससे वे सर्वलोकालोक का स्वरूप
जानते हैं। २. अनन्तदर्शन : दर्शनावरणीयकर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने से
केवलदर्शन प्रकट होता है, वे लोकालोक के स्वरूप को देखते
३. अव्याबाधसुख : वेदनीयकर्म के क्षय हो जाने से वे विशुद्ध
अनश्वर आध्यात्मिक सुखों से युक्त होते हैं। ४. अनन्तचारित्र : मोहनीयकर्म के नष्ट हो जाने से वे क्षायिक
सम्यग्दर्शन और क्षायिक चारित्र से युक्त होते हैं। मोहनीयकर्म के दर्शनमोह और चारित्रमोह - ऐसे दो भेद किये गए हैं। दर्शनमोह के प्राहण से यथार्थदृष्टि और चारित्रमोह के क्षय से यथार्थचारित्र (क्षायिकचारित्र) प्रकट होता है। लेकिन मोक्षदशा में क्रिया रूप चारित्र नहीं होता, मात्र दृष्टि रूप चारित्र होता है। अतः उसे क्षायिक सम्यक्त्व के अन्तर्गत् ही माना जा सकता है। यद्यपि आठ कर्मों की ३१ प्रकृतियों के क्षय होने के आधार पर सिद्धों के ३१ गुण माने गये हैं, उनमें यथाख्यात चारित्र को
स्वतन्त्र गुण माना गया है। ५. अक्षयस्थिति : आयुकर्म के क्षय हो जाने से वे मुक्तात्मा अक्षय
पद को प्राप्त होती है। ६. अरूपीपन : वे नामकर्म के क्षय होने से वर्ण, गन्ध, रस तथा
स्पर्श से रहित अशरीरी होते हैं, क्योंकि शरीर हो तभी वर्णादि होते हैं। सिद्ध के शरीर नहीं है इसलिये वे अरूपी
होते हैं। ७. अगुरुलघु : गौत्रकर्म के नष्ट हो जाने से वे अगुरूलघु होते
हैं। सभी सिद्ध समान होते हैं, उनमें छोटे-बड़े या ऊंच-नीच
का भेद नहीं होता। ८. अनन्तवीर्य : अन्तरायकर्म का क्षय होने से उन्हें अनन्तदान,
अनन्तलाभ, अनन्तभोग, अनन्तउपभोग तथा अनन्तवीर्य प्राप्त होता है अर्थात् आत्मा अनन्त शक्ति सम्पन्न होती है। लेकिन इन आठ कर्मों के प्रहाण के आधार से सिद्धात्मा के अष्टगुणों की चर्चा मात्र एक व्यावहारिक संकल्पना ही है। यह सिद्धात्मा के वास्तविक स्वरूप की विवेचना नहीं है। व्यावहारिक दष्टि से उसे समझने का प्रयास मात्र है। वास्तव में आत्मा का स्वरूप
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