Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ
३. कापोतलेश्या :
कापोतलेश्या तृतीय लेश्या है। इसकी मनोवृत्ति भी दूषित होती है । ३२ इस मनोवृत्ति में प्राणी के व्यवहार में मन, वचन और कर्म से एकरूपता नहीं होती । कापोतलेश्यावाला व्यक्ति दूसरों पर रोष करता है, दूसरों की निन्दा करता है और अपनी प्रशंसा करता है। दूसरों को निम्न दृष्टि से देखता है । कापोतलेश्या वाले व्यक्ति के मनोभाव में सरलता एवं सहजता नहीं होती है, अपितु कपट और अहंकार होता है । वह सदैव अपने दोषों को छिपाने की कोशिश करता है। वह दूसरों की गुप्त बातों को प्रकट करके अपना हित साधनेवाला; उनके धन का अपहरण करनेवाला और मात्सर्य भावों से युक्त होता है । यह व्यक्ति दूसरों का हित भी तभी करता है, जब उससे उसकी स्वार्थ सिद्धि होती है । ३३ पूर्व की दो लेश्याओं से शुभ्र, किन्तु अन्य लेश्याओं से मलिन परिणाम इस लेश्या के होते हैं। शीघ्र रूष्ट होनेवाले, छोटी-छोटी बात में चिड़चिड़ानेवाले, अधिक हँसनेवाले, चोर, अत्यधिक शोकाकुल आदि स्वभाववाले को उत्तराध्ययनसूत्र में कापोतलेश्या से युक्त कहा गया है ।
तत्त्वार्थराजवार्तिक ३४ में इसके लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि -
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'मात्सर्य - पैशुन्य-पर- परिभवात्म-प्रशंसा-परपरिवादवृद्धिहान्यगणानात्मीय- जीवित- निराशता - प्रशस्यमानधनदान युद्धमरणोद्यमादि कापोतलेश्या लक्षणम्'
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अर्थात् निन्दा, चुगलखोरी, परपरिभव, आत्मप्रशंसा, परपरिवाद, जीवन में नैराश्य, प्रशसंक को धन प्रदान करना, युद्ध में मरने के लिए तैयार होना आदि कापोतलेश्या के लक्षण हैं । इसका रंग अलसी के तेल, कंटक एवं कबूतर की ग्रीवा के समान तथा इसका रस कच्चे आम के रस से अनन्तगुना अधिक खट्टा
३२ ३३
उत्तराध्ययनसूत्र ३४ / २५ एवं २६ ।
वही ।
३४ तत्त्वार्थराजवर्तिक ४ / २२ ।
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