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५. पद्मलेश्या :
इस लेश्या की मनोभूमि में तेजोलश्या की अपेक्षा पवित्रता या धर्मभावना अधिक होती है । यह शुभ लेश्याओं का द्वितीय चरण है । इस मनोभूमि में वे व्यक्ति आते हैं जो त्यागी हों, तपस्वी हों, जिनकी क्रोध, मान, माया और लोभ रूप अशुभ प्रवृत्तियाँ अत्यन्त अल्प हों, जो अपराधी के प्रति भी क्षमाशील हों, भद्र हों, सच्चे हों, उत्तम कार्य करनेवाले हों, श्रमण - श्रमणीवृन्द की सेवा भक्ति में निमग्न हों, साथ ही संयमी और आत्मजयी हों। उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि इसका रंग हरिताल, हल्दी और कमल के पुष्प के समान पीला होता है । इसका रस मधु से अनन्तगुना मीठा होता है । इस लेश्या की गन्ध कमल-पुष्प या सुगन्धित फूलों की गन्ध से अनन्तगुना अधिक इष्ट होती हैं। इस लेश्यावाला व्यक्ति उपशान्त, जितेन्द्रिय, अल्पभाषी एवं ध्यान-साधना में संलग्न रहता है । ४६ इस लेश्या की जघन्य स्थिति अर्न्तमुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति मुहूर्त अधिक दस सागरोपम होती है। पद्मलेश्यावाला जीव मन्दकषाय और प्रशान्तचित्त वाला होता है । ४७ वह सत्य का मात्र ज्ञाता ही नहीं होता, अपितु उसे जीता भी है । सत्य को आत्मसात् करने की उसकी इच्छा अति प्रबल होती है । पद्मलेश्यावाले जीव का चित्त प्रीतियुक्त होता है । उसे संसार असार लगने लगता है । वह आत्मसाधना में लीन रहता है । यह लेश्या सुगति की परिचायक है। तेजोलेश्या की अपेक्षा पद्मलेश्या के आत्म-परिणाम विशुद्धतर होते हैं। पद्मलेश्या को देवगति के बन्ध का कारण बताया गया है
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
६. शुक्ललेश्या :
शुक्ललेश्या शुभतम लेश्या है। इस लेश्या में शुभ- मनोवृत्ति की श्रेष्ठतम भूमिका होती है । शुक्ललेश्यावाले व्यक्ति का व्यवहार
४४ गोम्मटसार अधि. १५/५/५ ।
उत्तराध्ययनसूत्र ३४ / ८ एवं १४ ।
४५
४६ वही ३४/२६-३० ।
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उत्तराध्ययनसूत्र ३४ / २६-३०, ३८ एवं ५७ ।
४८
वही ३४ / ३१ - ३२ ।
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