Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 426
________________ त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ ३७३ एवं गोम्मटसार में पीतलेश्या के नाम से सम्बोधित किया गया है।३६ इसके रंग (वर्ण) का विश्लेषण करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में इसका रंग हिंगुल, मेरू, नवोदित सूर्य के समान सिंदूरी, तोते की चोंच तथा प्रदीप की लौ के समान लाल (रक्तवर्ण) बताया गया है।० लाल रंग क्रान्ति का प्रतीक है। इस लेश्यावाला व्यक्ति भी अधर्मलेश्या से धर्मलेश्या की ओर गतिशील होता है। उसका यह कार्य क्रान्तिकारी है। इसी कारण इस लेश्या के वर्ण की सार्थकता मानी जा सकती है। इसका रस पके आम के रस या कबीट के रस से अनन्तगुना खट्टा-मीठा होता है। इस लेश्या की गन्ध गुलाब के पुष्प जैसी तथा पीसे जा रहे सुगन्धित पदार्थों की सुगन्ध से अनन्तगुना अधिक होती है। इसका स्पर्श मक्खन, शिरीष-पुष्पों के कोमल स्पर्श से अनन्तगुना कोमल होता है। इस लेश्यावाले जीवों का स्वभाव नम्र और अचपल होता है। वे पापभीरू तपस्वी, सेवाभावी जितेन्द्रिय और मोक्षमार्ग के . अभिमुख होते हैं। तेजोलेश्यावाला अनैतिक आचरण की ओर प्रवृत्त नहीं होता, फिर भी वह सुखापेक्षी होता है। किन्तु वह अनैतिक आचरण द्वारा सुखों की प्राप्ति या अपने स्वार्थ की सिद्धि नहीं करता है। धार्मिक आचरण में उसकी पूर्ण आस्था होती है। इस मनोभूमि में व्यक्ति दूसरे के कल्याण की भावना से युक्त होता है। वह पवित्र आचरणवाला, धैर्यवान, निष्कपट, आकाँक्षारहित, विनीत संयमी और योगी होता है।२ वह प्रिय एवं दृढ़धर्मी तथा हितैषी होता है एवं दूसरे के अहित की कामना तब तक नहीं करता, जब तक दूसरा उसके हितों का हनन न करे। इस लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्महुर्त एवं उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवे भाग अधिक दो सागरोपम की है। यह लेश्या सुगति की ओर अग्रसर करनेवाली है।३ तेजोलेश्या को मनुष्य गति के बन्ध का कारण बताया गया है। २६ (क) उत्तराध्ययनसूत्र अ. ३३ गा. ८, १४ । (ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) अधि. १५ गा. ५/४ । १० उत्तराध्ययनसूत्र ३४/७ । " वही ३४/१३ । १२ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/२७-२८ । ४३ वही ३४/१७, १६, २७, २८, ३७ एवं ५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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