Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 423
________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा जाता है । इसका रंग, अशोकवृक्ष तथा स्निग्ध-वैडूर्यमणि के समान नीला होता है। रस सौंठ, पीपल, कालीमिर्च से अनन्तगुना तिक्त ( अति तीखा ) होता है । २६ इसकी गन्ध मृत गाय, मृत कुत्ते और मृत सर्प की दुर्गन्ध से भी अनन्तगुना होती है। गाय की जीभ से अनन्तगुना कर्कश (खुरदुरा) इसका स्पर्श है । नीललेश्यावाले स्वार्थी होते हैं, किन्तु कृष्णलेश्या की अपेक्षा इनके विचार कुछ सन्तुलित होते हैं। इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम की होती है । इस लेश्या वाले जीव की भी दुर्गति होती है । नीललेश्यावाला व्यक्ति बाह्य रूप में जो हित करता सा दिखाई देता है, उसके पीछे भी उसका गहरा स्वार्थ छुपा रहता है। नीललेश्यावाले को मांगने पर भी लज्जा का अनुभव नहीं होता । नीललेश्या से जीव नरक गति में भी जाता है । उत्तराध्ययनसूत्र में कृष्ण, नील व कापोत लेश्या को दुर्गति का कारण और नरक तथा तिर्यंच गति का हेतु बताया गया है । एक जीव भावों के आधार पर अनेक स्थानों का स्पर्श कर सकता है। छहों लेश्याओं में केवल मिथ्यादृष्टि जीव ही रह सकता है । ऐसी नीललेश्या की परिणति होती है । जब अप्रत्याख्यानी कषाय की नीललेश्या हो, तब कृष्णलेश्या से नीललेश्या किंचित् उज्ज्वल होती है। अनन्तानुबन्धी कषाय की नीललेश्या से युक्त व्यक्ति आलसी, निद्रालु, परिवार आदि में अत्यधिक आसक्ति, धन संग्रह की लिप्सा, विकथा और मोह भाव इस अवस्था में विशेष होता है ।" इस प्रकार नीललेश्या का वर्णन किया गया है। ३७० २६ उत्तराध्ययनसूत्र ३४ / ५ एवं ११ । ३० वही ३४ / ३५ एवं ५६ । ३१ गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) अधि. १५ गा. ५११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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