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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
से नीललेश्या की स्थिति में पहुँचता है। जब भाव अपवित्र होते हैं, तब चेतना का पुनः नीललेश्या से कृष्णलेश्या में परिणमन होता है। वस्तुतः भावलेश्या ही जीव की अच्छी और बुरी गति का कारण है। प्रशस्त भावलेश्या से जीव की अच्छी गति और अप्रशस्त भावलेश्या से जीव की बुरी गति होती है। भावलेश्या आन्तरिक स्तर है, जिसका आधार राग-द्वेषात्मक परिणति हैं। ये भी छ: लेश्याएँ होती हैं - पूर्व की तीन लेश्याएँ अशुभ और अन्त की तीन लेश्याएँ शुभ होती हैं।२३ भावलेश्या आत्मा के परिणामों के अनुसार बदलती रहती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में लेश्याओं के मुख्यतः छः प्रकार उपलब्ध होते हैं, वे इस प्रकार हैं :
१. कृष्णलेश्या; २. नीललेश्या; ३. कापोतलेश्या; ४. तेजोलेश्या; ५. पद्मलेश्या और ६. शुक्ललेश्या।
१. कृष्णलेश्या :
पंचसंग्रह में कृष्णलेश्या के लक्षणों की विवेचना की गई है। जो तीव्र क्रोध करने वाले हों, वैरभाव से सन्तृप्त हों, लड़ना-भिड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दयाभाव से रहित हों, दुष्ट हों - वे कृष्ण लेश्या वाले होते हैं। क्रूर, निर्लज्ज, अविचारी, नृशंस, क्लेश, सन्ताप, हिंसा निर्दयता, ताप, असन्तोष, तीव्र-वैर एवं अतिक्रोध अपने मन पर किसी भी प्रकार का नियन्त्रण न होना आदि कृष्ण लेश्या के लक्षण हैं। इसका वर्ण अमावस की रात जैसा गहरा काला, स्निग्ध बादल, भैंस, खंजनपक्षी, अंजन नयनतारा के सदृश होता है। इसका रस कडुए तुम्बे और नीम के समान है। इसकी गन्ध गाय, कुत्ते एवं सर्प के मृत कलेवर से भी अनन्तगुना अनिष्ट होती है तथा स्पर्श शकवृक्ष के समान अति कर्कश होता है।२४ भारतीय परम्परा में यम (मृत्यु) को काले रंग में दर्शाया जाता है। काला रंग अशुभ और कलुषता का प्रतीक है। काला आभामण्डल देखकर वैज्ञानिक व्यक्ति को हिंसक, क्रोधी और भयंकर क्रूर भाव श्रेणी में स्वीकार करते हैं। उसके विचार जैसे जामुन को खाने के
२३ गोम्मटसार ५०६-१७ । २४ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/४, १०, १६ एवं १८ ।
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