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त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ
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लिये पूरे वृक्ष को जड़-मूल से काटना; अल्प सुखानुभूति के लिए पूरे वृक्ष को जड़मूल से काटना; असंख्य जीवों की हिंसा करने के भाव आदि होते हैं। कृष्णलेश्यावाले जीव के स्वभाव में प्रचण्डता होती है। बेमतलब वृक्ष की पत्तियाँ मसलना, कुचलना, व्यर्थ ही इधर-उधर डालना, क्रोध में बच्चों को गाली देना, आंखें फूट जायें, टांग टूट जायें आदि कहना - यह कृष्णलेश्या है। ऐसे जीव ऐन्द्रिक विषयों की पूर्ति हेतु सतत प्रयत्नशील होते हैं तथा क्रूर स्वभाव के वशीभूत होने से उनमें हिताहित का विचार करने की क्षमता नहीं होती। कृष्णलेश्या वाले जीव की जघन्य स्थिति एक मुहूर्त एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तैंतीस सागरोपम है। सातवें नरक के जीवों की उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागरोपम है५ एवं वे द्रव्यापेक्षा से कृष्णलेश्या वाले ही होते हैं। उनमें निकृष्टतम दुर्गुणों का निवास होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कृष्णलेश्या को नरकगति का हेतु बताया गया है। यह लेश्या दुर्गति का कारण होती है।६ कृष्णलेश्यावाला व्यक्ति कर्तव्य विमुख होता है।
२. नीललेश्या :
तिलोयपण्णति२७ में नीललेश्या के लक्षणों के विषय में विवेचन इस प्रकार उपलब्ध होता है कि नीललेश्या वाले विषयों में आसक्त, मतिहीन, मानी, विवेकबुद्धि से रहित, मन्द, आलसी, कायर, अत्यधिक माया, प्रपंच में लीन, निद्राशील, दूसरों को ठगने में तत्पर, लोभ में अन्धे, ईर्ष्यालु, कदाग्रही, अज्ञानी, प्रमादी अतपस्वी, रसलोलुप, निर्लज्ज, शठ एवं सुख के गवेषक होते हैं। वे दूसरों को हानि पहुँचाकर स्वयं की स्वार्थ-सिद्धि में सजग रहते हैं। आलस्य, मूर्खता, कार्य के प्रति अनिष्ठा, तृष्णा, झूठ, चंचलता, अतिलोभ आदि नीललेश्या के लक्षण हैं।
नीललेश्या द्वितीय लेश्या है, इसमें कालापन कुछ हल्का हो
१५ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/३४ एवं ५६ । २६ वही ३४/४१ एवं ४३ । २७ (क) तिलोयपत्रत्ति २/२६५-३०१ ।
(ख) गोम्मटसार ५०६ एवं ५१७ । २८ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/२३ एवं २४ ।
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