Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
कहते हैं।६ गोम्मटसार जीवकाण्ड में आचार्य नेमिचन्द्र ने कहा हैं कि जिसके द्वारा आत्मा अपने को पुण्य-पाप से लिप्त करती है, उसे लेश्या कहते है। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने लेश्या के भेद किए हैं : 'लेश्या द्विविधा, द्रव्यलेश्या, भावलेश्या चेति' अर्थात् लेश्या दो प्रकार की है :
१. द्रव्यलेश्या; एवं २. भाव लेश्या। १. द्रव्यलेश्या :
द्रव्यलेश्या सूक्ष्म भौतिक तत्वों से निर्मित है। शरीर की प्रभा को आगम में द्रव्यलेश्या कहा गया है। द्रव्यलेश्या पौद्गलिक है अतः पुद्गल के सभी गुण इसमें विद्यमान हैं। द्रव्यलेश्या में पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श होते हैं। क्षेत्र की दृष्टि से उसका विस्तार लोकाकाश तक हो सकता है। वह असंख्यात आकाश प्रदेशों का अवगाहन करती रहती है। काल की अपेक्षा से वह शाश्वत है। कभी ऐसा नहीं हुआ की द्रव्यलेश्या का अस्तित्व न रहा हो! जिस प्रकार पित्तद्रव्य की विशेषता से स्वभाव में क्रोधीपन आता है और क्रोध के कारण पित्त का निर्माण बहुल रूप में होता है; उसी प्रकार इन सूक्ष्म भौतिक तत्वों से मनोभाव बनते हैं और मनोभावों के होने पर इन सूक्ष्म संरचनाओं का निर्माण होता है। इनके स्वरूप के सम्बन्ध में पण्डित सुखलालजी एवं राजेन्द्रसूरिजी ने तीन मतों का उल्लेख किया हैं, वे इस प्रकार हैं : .. १. लेश्याएँ द्रव्य कर्मवर्गणाओं से बनी हुई हैं। यह मत
उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में उल्लिखित है। २. लेश्या द्रव्य बध्यमान कर्मप्रवाह है। यह मत भी उत्तराध्ययनसूत्र
की टीका में वादिवैताल शान्तिसूरि द्वारा उल्लेखित है। ३. लेश्या योगपरिणाम है अर्थात् शारीरिक वाचिक और मानसिक
क्रियाओं का परिणाम है। यह मत आचार्य हरिभद्र का है।
-धवला, ८/३ ।
१६ 'जीवकम्माणं संसिलेसयणयरी, मिछत्तासंजमकषायजोगा त्ति भणिदं होदि ।' १७ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) ४८६ । १८ सर्वार्थसिद्धि २/७ । १६ उत्तराध्ययनसूत्र ३४/३ । २० (क) 'दर्शन और चिन्तन' भाग २ पृ. २६७;
(ख) अभिधानराजेन्द्रकोश खण्ड ६ पृ. ६७५ ।
-पं. सुखलालजी ।
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