Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 418
________________ त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ ३६५ इस प्रकार परिभाषित किया है: 'योगः परिणामो लेश्या "२ अर्थात् योग का परिणाम लेश्या है । लेश्या और योग का अविनाभाव सम्बन्ध है । योग का विच्छेद होते ही लेश्या का परिसमापन हो जाता है। उदाहरण के रूप में योग को कपड़ा और लेश्या को रंग कहा जा सकता है। योग के सद्भावों में लेश्या का सद्भाव तथा योग के अभाव में लेश्या का अभाव होता है । भगवतीसूत्र की वृत्ति में लेश्या को निरूपित करते हुए आचार्य अभयदेवसूरि लिखते हैं कि 'कृष्णादि द्रव्य सानिध्य जनितो जीव परिणामो लेश्या' अर्थात् आत्मा और कर्मपुद्गलों को अनुरंजित करने वाली योग-प्रवृत्ति ही लेश्या है । तत्त्वार्थराजवार्तिक में आचार्य अकलंक लेश्या को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि 'कषायोदय रंजिता योगप्रवृत्तिः लेश्या' अर्थात् कषाय से मलिन आत्मप्रदेश की चंचलतामय योगप्रवृत्ति को ही लेश्या कहा गया है । 'कर्मनिस्यन्दों लेश्या यतः कर्म स्थिति हेतवो लेश्या', अर्थात् जिसके द्वारा कर्म की स्थिति का निर्धारण होता है, वह लेश्या है। कर्म के उदयं से जीव की भावधारा ही लेश्या कहलाती है । कर्मों के स्थितिबन्ध का हेतु लेश्या होती है। क्योंकि यह शुभाशुभ भावरूप रस डालती है, किन्तु कषाय के अभाव में तेरहवें गुणस्थान में शुक्ललेश्या का सद्भाव माना गया है वह विचारणीय है, वह योग निमित्त ही है। अयोगी केवली की स्थिति में लेश्या का अभाव हो जाता है । भगवतीसूत्र‍ एवं प्रज्ञापना में १५ द्वारों से लेश्या का विवेचन किया गया है। तत्त्वार्थराजवार्तिक एवं गोम्मटसार में भी लेश्या के १६ द्वारों की समीक्षा की गई है।" लेश्या आत्मपरिणामरूप भी है तथा आत्मपरिणाम की संवाहिका भी है। भावदीपिका में अनन्तानुबन्धी आदि चार कषायों की अपेक्षा से लेश्या के ७२ भेदों का वर्णन किया गया है।" वे शुभ और अशुभ मानसिक परिणाम को लेश्या १२ उत्तराध्ययन सूत्र टीका पत्र ६५० ( शान्त्याचार्य) | १३ (क) भगवतीसूत्र ४/१०/८ | (ख) प्रज्ञापना १७ / ४ /१ । (क) तत्त्वार्थराजवार्तिक पृ. २३८ । (ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) ४६१-६२ । भावदीपिका पृ. ८५- ६१ । १४ १५ Jain Education International - अंगसुत्ताणि (लाडनूं) खण्ड २ पृ. १८५१ । उवंगसुत्ताणि (लाडनूं) पृ. २६६७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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