Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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त्रिविध आत्मा की अवधारणा एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ
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और अशुभत्व के आधार पर उसके व्यक्ति का निर्धारण करना, यही लेश्या सिद्धान्त का मुख्य प्रतिपाद्य है। सामान्यतया इस आधार पर व्यक्ति को धार्मिक या अधार्मिक अथवा कृष्णपक्षी या शुक्लपक्षी अथवा सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि कहा जाता हैं। जिसके आचार, व्यवहार और मनोभाव अशुभ होते हैं, उसे मिथ्यादृष्टि, कृष्णपक्षी या अधार्मिक कहा जाता है। इसके विपरीत जिसके आचार व्यवहार
और मनोभाव शुभ होते हैं, उसे शुक्लपक्षी, सम्यग्दृष्टि या धार्मिक कहा जाता है। शुभत्व और अशुभत्व यह एक सामान्य अवधारणा है, किन्तु शुभत्व-अशुभत्व में अनेक कोटियाँ होती हैं। सामान्य रूप से उन्हें हम अशुभतम, अशुभतर और अशुभ, शुभ, शुभतर और शुभतम - षड्विध लेश्याओं के रूप में जानते हैं। वैसे इनकी भी आवान्तर कोटियाँ हो सकती हैं। शुभत्व और अशुभत्व - इनकी इस तरतमता के आधार पर जैन दार्शनिकों ने व्यक्तित्व के ३, ६, ८१ और २४३ उपभेद भी किये हैं। डॉ. सागरमल जैन ने अनेक ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह प्रमाणित कर दिया है कि लेश्या की अवधारणा जैन दर्शन की अपनी प्राचीन एवं मौलिक अवधारणा है। यहाँ हम इनकी अधिक गहराई में न जाकर सामान्य रूप से षड्लेश्याओं की चर्चा करेंगे।
षड्लेश्याओं की अवधारणा __ जैन दार्शनिकों ने लेश्या की परिभाषा करते हुए कहा है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध लेश्या के कारण है। चित्त में उठनेवाली विचार तरंगों को लेश्या कहा गया है। जैसे सागर में हवा के झोंके आने पर लहरें उठती है, वैसे ही आत्मारूपी सागर में कर्मरूपी हवा के झोंके आने अथवा भाव कर्म के उदय होने पर विषय, विकार और विचार रुपी तरंगें उठने लगती हैं। इसी तरह लेश्याएँ होती हैं। स्थानांगवृत्ति में लेश्या के स्वरूप का परिचय देते हुए कहा गया है कि इसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती हैं। लेश्या के सम्बन्ध में तीन मत निम्न प्रकार से बताये गए हैं :
४ 'जैन धर्म का लेश्या सिद्धान्त' (श्रमणपत्रिका १६६५ अंक ४-६)। ५ (क) 'लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या'
-स्थानांगवृत्ति पत्र २६ । (ख) 'लिंपई अप्पीकीरई'
-गोम्मटसार जी. अधि. १५ गा. ४८६ ।
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