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अध्याय ६
त्रिविध आत्मा की अवधारणा
एवं आध्यात्मिक विकास की अन्य अवधारणाएँ
६.१ लेश्या सिद्धान्त
त्रिविध आत्मा की अवधारणा वस्तुतः आत्मा के आध्यात्मिक विकास को ही सूचित करती है। उसमें आत्मा अपनी बहिर्मुखता को त्यागकर और अन्तर्मुख होकर कैसे परमात्मस्वरूप को उपलब्ध होती है, इसकी भी चर्चा है। __ जैनदर्शन में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की इस चर्चा को अनेक दृष्टियों से समझाया गया है। वस्तुतः उनमें षडलेश्या की अवधारणा, कर्म विशुद्धि के रूप में १० विशुद्धियों की अवधारणा और १४ गुणस्थानों की अवधारणा प्रमुख हैं। यहाँ हम सर्वप्रथम षड्लेश्या की अवधारणा के सम्बन्ध में संक्षिप्त चर्चा करेंगे। लेश्या प्राणी के भावजगत के अशुभ से शुभ की ओर होनेवाले विकास को सूचित करती है। आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से षड्लेश्याओं को निम्न क्रम में प्रस्तुत किया जा सकता है।
१. अशुभतम मनोवृत्ति - कृष्णलेश्या; २. अशुभतर मनोवृत्ति - नीललेश्या; ३. अशुभ मनोवृत्ति - कापोतलेश्या; ४. शुभ मनोवृत्ति - तेजोलेश्या: ५. शुभतर मनोवृत्ति - पद्मलेश्या; और
६. शुभतम मनोवृत्ति - शुक्ललेश्या इस प्रकार षड्लेश्याएँ व्यक्ति के शुभ-अशुभ की ओर आध्यात्मिक विकास को ही सूचित करती हैं। लेश्या का सिद्धान्त
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