________________
३६२
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
मूलतः अशुभतम अवस्था से शुभतम अवस्था की ओर आत्मा की विकास यात्रा कैसे होती है, इसी का विवेचन प्रस्तुत करता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इन षड्लेश्याओं में व्यक्ति की मनोभूमिका किस प्रकार की होती है, इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' एवं मुमुक्षु शान्ता जैन ने लेश्या सम्बन्धी अपने शोध प्रबन्ध में अति विस्तार से चर्चा की है। यहाँ उस समग्र चर्चा की गहराई में जाना तो सम्भव नहीं है, किन्तु नैतिक और आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से इन षड्लेश्याओं की क्या स्थिति है, इसका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।
लेश्या
जैनदर्शन में लेश्याएँ मनोभावों का वर्गीकरण ही नहीं, अपितु मनोभावों के शुभत्व और अशुभत्व के आधार पर व्यक्तित्व के प्रकार भी हैं। मनोभाव केवल संकल्पात्मक ही नहीं होते, अपित बाह्य व्यवहाररूप में इनकी अभिव्यक्ति भी होती है। वास्तव में व्यक्ति के संकल्प ही कर्मरूप में परिवर्तित होते हैं। ब्रेडले का कहना है कि चाहे हम मनोभाव कहें या संकल्प, ये व्यक्ति के आचरण के प्रेरणास्रोत्र हैं। मनोभाव और आचरण कर्म के क्षेत्र में पृथक-पृथक नहीं होते हैं। आचरण अर्थात आदतों से संकल्पों की मनोभूमि बनती है और संकल्पों की मनोभूमि पर ही आचरण की आधारशिला स्थित होती है। मनोभावों और बाह्य व्यवहार में अत्यन्त घनिष्ट सम्बन्ध है। व्यक्ति की आदतों के आधार पर उसके विचार या मनोभाव बनते हैं और ये मनोभाव ही सुद्दढ़ होकर आदत बन जाते हैं। आदत व्यक्ति के व्यक्तित्व की परिचायक होती है। व्यक्ति के सोच विचार और व्यवहार के आधार पर उसका व्यक्तित्व निर्मित होता है। मनोभावों एवं बाह्य व्यवहार के शुभत्व
' उत्तराध्ययनसूत्र अध्याय ३४ । २ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १' पृ. ५१२-२२ ।
-डॉ. सागरमल जैन । ३ 'लेश्या और मनोविज्ञान' पृ. २७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org