Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
१. लेश्या योग-परिणाम है। २. लेश्या कर्म-परिणाम है। और
३. लेश्या कषाय-परिणाम है। स्थानांगसूत्र एवं प्रज्ञापना में जीव के दस परिणाम बताये गए है। आगम में लेश्या के रूप में समाधान मिलता है। आत्मा और कर्म को जोड़ने वाला या लिप्त करनेवाला सेतु लेश्या है।° धवला में लेश्या को परिभाषित करते हुए बताया गया है कि 'लिम्पतीति लेश्या, कर्मभिरात्मा नामित्यध्याहारप्रेक्षित्वात् आत्मप्रवृत्ति संश्लेषकारी लेश्या।' अर्थात् जो लेश्या कर्मों से आत्मा का लेपन (लिप्त) करती है, उसे लेश्या कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में लेश्या के परिणामों की संख्या २४३ बताई गई है।"
लेश्या का अधिकाधिक असंख्य अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल जितना समय हो सकता है और उतने ही स्थल हो सकते हैं। असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के समान लेश्याओं के स्थान हैं। नवांगीटीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि के अनुसार कृष्ण आदि द्रव्य-वर्गणाओं के सम्बन्ध में होनेवाले जीव के परिणाम को लेश्या कहते हैं। इस प्रसंग में एक प्राचीन गाथा उद्धृत है
'कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः ।
स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्या शब्द प्रयुज्यते।।' अर्थात् स्फटिकमणि को जिस रंग के धागे में पिरोया जाता है, वह वैसा ही परिभाषित होता है; उसी प्रकार जैसी कर्मवर्गणाएँ जीव के सम्मुख आती हैं, वैसे ही जीव के परिणाम आत्मपरिणाम बन जाते हैं। ठीक वैसे ही लेश्या भी उन आत्मपरिणामों का हेतु है। शान्त्याचार्य ने लेश्या की अनेक परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं जो लेश्या के स्वरूप को स्पष्ट करने में सहायक होती हैं। उन्होंने लेश्या को
६ 'योग परिणामो लेश्या' ७ 'कर्म निष्यन्दो लेश्या'
'तेच परमार्थतः कषाय-स्वरूप एवं' ६ (क) 'दसविधे जीवपरिणामे'
(ख) पत्रवणा पद १३ सूत्र । १० थवला ८/३/२७६॥ ' उत्तराध्ययनसूत्र ३४/२० ।
___-स्थानांगवृति पत्र २६ । -उत्तराध्ययनसूत्र की वृहद्वृत्ति अ. ३४ की टीका ।
-पण्णवण्णापद १७, मलयगिरि टीका ।
-ठाणं स्थान १० सूत्र १८ ।
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