Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 407
________________ ३५६ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा भी उनके अस्तित्व अर्थात् सत्ता को स्वीकार कर उन्हें भावात्मक भी स्वीकार करता है। यह भी ज्ञातव्य है कि आचारांगसूत्र का यह विवरण परवर्ती जैनदर्शन के विवरण की अपेक्षा आत्मा के औपनिषदिक विवरण के अधिक निकट है। ५.१० सिद्ध परमात्मा के ३१ गुण उत्तराध्ययनसूत्र के ३१वें अध्ययन में सिद्ध परमात्मा के ३१ गुण बताये गए हैं, किन्तु वहाँ उनके नामों का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार भावविजयजी एवं नेमिचन्द्राचार्य ने सिद्ध परमात्मा के निम्न ३१ गुणों का उल्लेख किया है : ५ संस्थानाभाव, ५ वर्णाभाव, २ गन्धाभाव, ५ रसाभाव, ८ स्पर्शाभाव, ३ वेदाभाव, अकायत्व, असंगत्व और अजन्मत्व। लक्ष्मीवल्लभ गणिवर ने भी पाँच संस्थानाभावादि इन्हीं ३१ गुणों का विवेचन किया है।'६० अन्य कुछ आचार्य ज्ञानावरणीय कर्म की ५, दर्शनावरणीय कर्म की ६, वेदनीय की २, मोहनीय की २, आयुष्यकर्म की ४, गोत्रकर्म की २, नामकर्म की २ तथा अन्तराय कर्म की ५ - इस प्रकार कुल ३१ कर्मप्रवृत्तियों के अभाव रूप सिद्धों के ३१ गुणों का ही उल्लेख करते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में मूलतः नामकर्म की दो प्रकृतियों का ही विवरण प्राप्त होता है। इस प्रकार उसमें आठ कर्मों की कुल ३१ उत्तर प्रवृत्तियाँ ही वर्णित हैं। अतः उनके अभाव से आत्मा में जिन ३१ गुणों की अभिव्यक्ति होती है, वे सिद्ध परमात्मा के ३१ गुण है। वस्तुतः तो आत्मा में अनन्त गुण हैं, किन्तु आठ मूल कर्म प्रकृतियों के क्षय की अपेक्षा से ३१ गुण माने गये हैं।६१ सिद्ध परमात्मा के अष्टगुण : अष्टकर्मों के क्षय के आधार पर सिद्ध परमात्मा के निम्न १८६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३०२६ । १६° उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३०५३ । " उत्तराध्ययनसूत्र : दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिपेक्ष्य में उसका महत्त्व'पृ. १८५ । ___ -साथ्वी. डॉ. विनितप्रभाश्री। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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