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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
नहीं, वे सृष्टि को नित्य प्रवाहरूप पंच-अस्तिकायों से निर्मित मानते हैं। यद्यपि इसमें समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं; लेकिन वे परिवर्तन प्रकृति की अपनी योजना के अनुसार ही होते हैं। उसके लिए किसी सृष्टिकर्ता या उसके संरक्षक को मानने की आवश्यकता नहीं है। परिवर्तन जगत् का अपना नियम है। घटनाएँ अपने कारणों के अनुसार घटित होती रहती हैं।
जैनदर्शन में आचार्य हरिभद्र ही एक ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने जैनदर्शन की मान्यताओं को सुरक्षित रखते हुए एक विशिष्ट अर्थ में 'शास्त्रवार्ता-समुच्चय' में ईश्वर के कृतित्व का समर्थन किया है। वे लिखते हैं कि यह आत्मा ही परमात्मा है और आत्मा ही अपने कर्मों के द्वारा अपने संसार की रचना करती है। इस अर्थ में वह सृष्टि-कर्ता है। वस्तुतः यहाँ हरिभद्र ने ईश्वर के कृतित्व का नहीं, अपितु आत्मा के कृतित्व का ही समर्थन किया है। मूल में तो बौद्धदर्शन और जैनदर्शन ईश्वर कृतित्व के प्रखर आलोचक रहे हैं। फिर भी तीनों ही परम्पराएँ अवतार, बुद्ध या तीर्थकर को धर्म-मार्ग का संस्थापक स्वीकार करती हैं। हिन्दू परम्परा में ईश्वर के अवतार लेने का प्रयोजन धर्म की संस्थापना है। यद्यपि यह एक अलग बात है कि हिन्दू परम्परा अवतार का प्रयोजन धर्म की संस्थापना तक ही सीमित नहीं करती है। उसके अनुसार ईश्वर के अवतार का एक अन्य प्रयोजन दुष्टों का विनाश और सज्जनों की सुरक्षा करना है। इस अर्थ में अवतार, तीर्थकर या बुद्ध की अवधारणा से भिन्न है।
जहाँ तक तीर्थकर और बुद्ध की अवधारणा के तुलनात्मक अध्ययन का प्रश्न है, दोनों ही यह मानते हैं कि बूद्ध या तीर्थंकर का मुख्य प्रयोजन लोक-मंगल होता है। दोनों ही धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं। दोनों ही अवतारवाद से इस अर्थ में भिन्न हैं कि वे लोक-कल्याण या धर्म की संस्थापना के लिए किसी ईश्वर का अवतरण नहीं मानते हैं, अपितु किसी वैयक्तिक आत्मा के आध्यात्मिक विकास के चरम उत्कर्ष को प्राप्तकर जन्म लेने की बात कहते हैं। तीर्थकर या बुद्ध के रूप मे जो व्यक्ति अपना आध्यात्मिक विकास करता है, वह ऊपर से अवतरित नहीं होता, अपितु कोई चेतना या चेतनधारा ही अपना आध्यात्मिक विकास
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