________________
३५२
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
५.८ तीर्थंकर और अवतार में अन्तर तीर्थकर और अवतार में निम्नानुसार अन्तर है : १. जैन धर्म में तीर्थंकर की अवधारणा वैष्णव परम्परा के अवतार
की अवधारणा से कुछ भिन्न प्रतीत होती है। वैष्णव अवतारवाद में परमात्मा स्वयं अवतार लेते हैं, जबकि जैन परम्परा में कोई
भी तीर्थकर पुनर्जन्म ग्रहण नहीं करता है। २. तीर्थकर का पद विशेष साधना के बाद कोई आत्मा उपलब्ध
करती है, किन्तु अवतार के रूप में जन्म लेने के लिए ईश्वर को कोई साधना नहीं करनी होती। मात्र सष्टि की परिस्थिति और अवतार ग्रहण करने की इच्छा से वह अवतार के रूप में अवतरित होता है। इस प्रकार तीर्थकर पद साधनाजन्य है -
अवतार इच्छाजन्य है। ३. बार-बार अवतार के रूप में जिसका अवतरण होता है, वह
एक ही आत्मा है अर्थात् परमात्मा है; जबकि प्रत्येक तीर्थकर
भिन्न आत्मा होती है। ४. अवतार का प्रयोजन धर्म की संस्थापना तक ही सीमित नहीं
होता है। उसका एक अन्य प्रयोजन दुष्टों का विनाश और सज्जनों की सुरक्षा भी है, जबकि तीर्थकर न तो दुष्टों का विनाश करते हैं और न ही सज्जनों की सुरक्षा का आश्वासन
देते हैं। ५. दुष्टों के विनाश के लिए अवतार अनेक प्रकार के छल छद्म भी
करते हैं किन्तु तीर्थकर सहज रूप से. धर्म मार्ग का उपदेशक
होता है। उसके जीवन में छल छद्म का अभाव होता है। ६. अवतारवाद में परम सत्ता ऊपर से नीचे की ओर आती है;
जबकि तीर्थकर की अवधारणा में कोई एक जीवात्मा अपने आध्यात्मिक विकास द्वारा ऊपर उठती हुई परमात्मपद को प्राप्त करती है। संक्षेप में अवतारवाद अवतरण का सिद्धान्त है
जबकि तीर्थकर की अवधारणा उत्तरण का सिद्धान्त है। ७. तीर्थकर की अवधारणा पुरुषार्थवाद के सिद्धान्त पर आधारित
है; जबकि अवतार की अवधारणा ईश्वरीय इच्छा का परिणाम
१७६
(क) परमात्मप्रकाश पृ. १०२; (ख) प्रवचनसार मू. ६२-६३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org