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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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अन्त में बुद्ध के रूप में जन्म ग्रहण करती है। जैन धर्म के अनुसार यहाँ कुछ भिन्नता मिलती है। भविष्य में तीर्थकर होने वाली आत्मा सर्वप्रथम किसी तीर्थकर या प्रबुद्धाचार्य आदि से प्रतिबोधित होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति करके अनेक जन्मों में तीर्थकर नामकर्म के उपार्जन हेतु १६ या २० बोलों की साधना करती हुई अन्त में तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कर
उसके तीसरे जन्म में तीर्थंकर के रूप में जन्म लेती है। ५. बुद्ध और तीर्थंकर में सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा कुछ विशिष्ट
लक्षणों की कल्पना दोनों ही परम्पराओं में की गई है। दीर्घनिकाय के अनुसार बोधिसत्व जब तुषित देवलोक से च्युत होकर माता के गर्भ में आता है तब समस्त लोक में विशिष्ट प्रकाश होता है एवं मनुष्यों के मन के हिंसा के भाव लुप्त हो जाते हैं। जैनदर्शन के अनुसार तीर्थंकर का जब जन्म होता है तब समस्त विश्व में प्रकाश होता है - नरक में भी क्षणभर के लिए वह अलौकिक प्रकाश होता है और वहाँ भी क्षणभर
के लिए शान्ति का अनुभव होता है। ६. बौद्धों के 'पालि-त्रिपिटक' में बद्ध के गर्भावक्रान्ति,
सम्यक्सम्बोधि और निर्वाणकाल को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है। जैनदर्शन में तीर्थंकर परमात्मा की गर्भावक्रान्ति, जन्म, दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति और परिनिर्वाण को कल्याणक के रूप में
स्वीकार किया गया है। ७. बौद्ध 'पालीनिकाय' की अपेक्षा से बुद्ध जाग्रत दशा में ही
माता के गर्भ में प्रवेश करते हैं, किन्तु जैनदर्शन के अनुसार तीर्थकर परमात्मा जब देवलोक से च्यव कर माता के गर्भ में प्रवेश करते हैं, तब अवधिज्ञान से यह जानते हैं कि मैंने देवलोक से च्यव कर माता के गर्भ में प्रवेश किया है - यद्यपि च्यवनकाल सूक्ष्म होने से वे उसे नहीं जान पाते हैं। ये दोनों परम्पराएँ मानती हैं कि बुद्ध और तीर्थंकर अपने
गर्भकाल एवं जन्म के समय विशिष्ट ज्ञान से युक्त होते हैं। ८. बौद्ध परम्परा के अनुसार बुद्ध की माता बुद्ध के गर्भ में
प्रवेश होने पर स्वप्नावस्था में श्वेत हस्ति को अपनी कुक्षि में प्रवेश करते हुए देखती है। वैसे ही जैनदर्शन की अपेक्षा से तीर्थकर की माता हस्ति, सिंह, वृषभ आदि १४ या १६ स्वप्न देखती हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि सिंह आदि स्वर्ग से उतरकर उसके मुँह में प्रवेश कर रहे हैं।
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