Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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२१. अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व : अर्थ और धर्म के अनुकूल होना (धर्म
और अर्थ - इन पुरुषार्थों को साधने वाली वाणी); २२. उदारत्व : दीपक के सदृश्य अर्थ का प्रकाश करने वाले अथवा
उदारता युक्त वचन; २३. परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व : परनिन्दा और आत्मश्लाघा से
रहित; २४. उपगतश्लाघत्व : जिन्हें सुनकर लोग प्रशंसा करें, ऐसे वचन
होना; २५. अनपनीतत्व : समुचित कर्ता, कर्म, क्रियापद, काल और
विभक्ति से युक्तवाणी; २६. उत्पादिताच्छिन्न कौतूहलत्व : अपने विषय में श्रोताओं को
लगातार कौतूहल उत्पन्न करनेवाली वाणी; २७. अद्भुतत्व : वचनों का आश्चर्यजनक, अद्भुत एवं नवीनता
प्रदर्शक होना; २८. अनतिविलम्बित्व : अतिविलम्ब से रहित धाराप्रवाह से बोलना; २६. विभ्रम, विक्षेप, कलिकिंचितादि विमुक्तत्व : वाणी का भ्रान्ति,
विक्षेप रोष, भयादि से रहित होना; अनेक जातिसंश्रयाद्विचित्रत्व : विभिन्न प्रकार से वर्णनीय वस्तु
का स्वरूप प्रतिपादन करने वाली वाणी बोलना; ३१. आहितविशेषत्व : सामान्य वचनों की अपेक्षा विशिष्टता
युक्तवाणी; ३२. साकारत्व : पृथक्-पृथक् वर्ण, पद वाक्य के आकार से युक्त
वाणी; ३३. सत्वपरिगृहीतत्व : साहस से परिपूर्ण वाणी; ३४. अपरिखेदित्व : जिसमें खेद-खिन्नता का अभाव हो ऐसी वाणी
. होना; और ३५. अव्यछेदित्व : विवक्षित अर्थ को सम्यक् प्रकार सिद्ध करने
वाली वाणी।
३०.
५.४.१ तीर्थंकरों के पंचकल्याणक
जैन परम्परा में तीर्थंकर और सामान्य केवली का अन्तर पंचकल्याणक की अवधारणा के आधार पर हुआ है। तीर्थंकर परमात्मा के विशेष पुण्य के कारण पंचकल्याणक महोत्सव मनाये जाते हैं; किन्तु सामान्य केवली परमात्मा के पंचकल्याणक महोत्सव
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