Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
३. प्रव्रज्याकल्याणक : परम्परानुसार तीर्थंकर परमात्मा की दीक्षा के
अवसर के पूर्व ६ लोकान्तिक देव उनसे प्रव्रज्या ग्रहण करने की प्रार्थना करते हैं। वे प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख अर्थात् पूरे एक वर्ष में ३८८ करोड ८० लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करते हैं। उसे सांवत्सरिक महादान कहते हैं। दीक्षा तिथि के अवसर पर देवेन्द्र अपने देवमण्डल के साथ पधारकर उनका अभिनिष्क्रमण महोत्सव मनाते हैं। तीर्थंकर परमात्मा पालकी में बैठकर वनखण्ड की ओर जाते हैं। वहाँ अपने वस्त्राभूषण का त्याग कर और पंचमुष्ठिलोच कर दीक्षित हो जाते हैं। नियम से तीर्थकर स्वयं सम्बुद्ध होते हैं। उन्हें किसी गुरू की आवश्यकता नहीं होती। वे वस्त्राभूषण का त्याग कर सिद्धों को नमस्कार करके सावद्ययोग के प्रत्याख्यान करते हैं। चारित्र ग्रहण करते समय भन्ते शब्द का वे प्रयोग नहीं करते। ६५ प्रव्रज्या ग्रहण करते ही उन्हें मनःपर्यवज्ञान हो जाता
४.
केवल्यकल्याणक : तीर्थंकर परमात्मा अपनी साधना के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। इस अवसर पर स्वर्ग से इन्द्र और देवमण्डल आकर केवलज्ञान महोत्सव मनाते हैं। देवता तीर्थंकर परमात्मा की धर्मसभा के लिए समवसरण की रचना करते हैं।६६ तीर्थंकर परमात्मा तब तीर्थ की स्थापना करते हैं। हेमचन्द्राचार्य के अनुसार परमात्मा के गमनागमन के समय देव उनके पादतल के नीचे सुवर्ण कमलों की रचना करते हैं। साथ ही आठ प्रातिहार्यों अर्थात् १. अशोक वृक्ष; २. सुरपुष्पवृष्टि; ३. दिव्य-ध्वनि; ४. चामर; ५. सिंहासन; ६. भामण्डल; ७. दुन्दुभि; और ८. तीन छत्रादि की रचना करते
हैं।१६७
५. निर्वाणकल्याणक : तीर्थंकर (अरिहन्त परमात्मा) का यह अन्तिम
कल्याणक है। तीर्थंकर परमात्मा का निर्वाण अर्थात् जन्म मरण
१६५ _ 'सव्वातित्थगरावि य णं सामाइयं केरमाणा भणंति, करेमि सामाइयं-सव्वसावज्जं जोगं । पच्चक्खामि जाव वासिरामि, भदंति त्ति ण भणंति जीतमिति ।।
-आवश्यकचूर्णि भा.१, पत्र १६१ । १६६ (क) आचारांगसूत्र २/१५/१४०-४२ ।
(ख) कल्पसूत्र २११ ।। 'अरिहन्त' पृ. २०७-०८ ।
-डॉ. दिव्यप्रभाश्रीजी।
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